________________ देय और श्री सुदत्त मुनि आदाता-ग्राहक हैं। ये तीनों ही शुद्ध थे। अर्थात् दाता की भावना ऊंची थी, देय वस्तु-आहारादि प्रासुक-निर्दोष थी और ग्राहक सर्वोत्तम था। इसलिए दान भी सर्व प्रकार से फलदायक सम्पन्न हुआ। ___-तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स-यहां तृतीया के स्थान में-हैमशब्दानुशासन शब्दशास्त्र के-क्वचिद् द्वितीयादेः।८-३-१३४। इस सूत्र से षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। -तिविहेणं-तिकरणसुद्धेणं-(तीन प्रकार की करणशुद्धि से) इन पदों का भावार्थ है कि जिस समय सुमुख गृहपति आहार दे रहा था, उस समय उस के तीनों करण-मन, वचन और काया शुद्ध थे। आहार देते समय सुमुख गृहपति की मनोवृत्ति, वाणी का व्यापार, शारीरिक चेष्टा-ये तीनों ही संयत, प्रशस्त अथच निर्दोष थीं। ___ -परित्तीकते-इस का भावार्थ है-सुमुख गृहपति ने उक्त सुपात्रदान से संसारजन्ममरणरूप परम्परा को परिमित-स्वल्प कर दिया। इस के अतिरिक्त जैनपरिभाषा के अनुसार "परित्तसंसारी" उसे कहते हैं, जिस का जघन्य (कम से कम) काल अन्तर्मुहूर्त हो और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) काल देशोन-थोड़ा सा कम, अर्धपुद्गलपरावर्तन हो। अर्थात् जिस का जन्ममरणरूप संसार कम से कम 'अन्तर्मुहूर्त का, अधिक से अधिक देशोनअर्धपुद्गलपरावर्तन तक रह जाए उसे परित्तसंसारी-परिमित संसार वाला कहते हैं। संसार अपरिमित है। उस की कोई इयत्ता नहीं है। यह प्रवाह से अनादि अनन्त है। इस अपरिमित जन्ममरण-परम्परा को अपने लिए परिमित कर देना किसी विशिष्ट आत्मा को ही आभारी होता है। परिमित संसारी का मोक्षगमन सुनिश्चित हो जाता है, इसलिए यह बड़े महत्त्व की वस्तु दिव्य का अर्थ है-देवसम्बन्धी या देवकृत। वसु का अर्थ है-सुवर्ण / उस की वृष्टि धारा कहलाती है। वास्तव में देवकृत सुवर्णवृष्टि को ही वसुधारा कहते हैं। कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और रक्त ये पांच रंग पुष्पों में पाए जाते हैं। देवों से गिराए गए पुष्प वैक्रियलब्धिजन्य होते 1. द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित्।सीमाधरस्स वन्दे। तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाः षष्ठी। धणस्स लद्धो-धनेन लब्ध इत्यर्थः। चिरेण. . . (वृत्तिकारः) . ___2. एक जीव जितने समय में लोक के समस्त पुद्गलों को औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण इन शरीरों के रूप से तथा मन, वचन और काय के रूप से ग्रहण कर परिणमित कर ले अर्थात् लोक के सब पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में, फिर वैक्रिय, फिर तैजस, फिर कार्मण शरीर के रूप में, फिर मन इसी भांति वचन और काय के रूप में समस्त पुद्गलों का ग्रहण करके परिणत करे। उतने काल को पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। उस के अर्धकाल को अर्धपुद्गलपरावर्तन कहते हैं। दूसरे शब्दों में-अनन्त अवसर्पिणी और अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण का एक कालविभाग अर्धपुद्गलपरावर्तन कहलाता है। 898 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध