________________ अर्थ है-पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत अर्थात् बारह प्रकार के व्रतों वाला गृहस्थधर्म। . धर्मशब्द के अनेकों अर्थ हैं, किन्तु प्रकृत में शुभकर्म-कुशलानुष्ठान, यह अर्थ समझना चाहिए। धर्म का संक्षिप्त अर्थ सुकृत है। ___ -पुव्वाणुपुव्विं जाव दूइज्जमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से-चरमाणे गामाणुगाम-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण जानना चाहिए। अर्थात् ये पद "-क्रमशः चलते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाते हुए-" इस अर्थ के बोधक हैं। तथा-इहमागच्छेज्जा जाव विहरिजा-इस वाक्यगत जाव-यावत् पद से-इहेवणयरे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् यदि भगवान् महावीर यहां पधारें और इसी नगर में अनगारवृत्ति के अनुसार आश्रय स्वीकार कर के तप और संयम के द्वारा आत्मभावना से भावित होते हुए विहरण करें-निवास करें। तथा-मुंडे भवित्ता जाव पव्वएजा-यहां पठित जाव-यावत् पद से-अगाराओ अणगारियं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ स्पष्ट ही है। सारांश यह है कि मेरा शरीर सर्वाङ्गपरिपूर्ण है। किसी अंग में भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है। ऐसा सर्वांगसन्दर शरीर किसी विशिष्ट पुण्य के उदय से ही प्राप्त होता है। संसार में अनेकों प्राणी हैं। उन में यदि बोलने की शक्ति है तो देखने की नहीं, देखने की है तो सुनने की नहीं, सुनने की है तो सूंघने की नहीं, यदि सब कुछ है तो भले-बुरे को पहचानने की शक्ति नहीं। इसी प्रकार हाथ हैं तो पांव नहीं, कान हैं तो नाक नहीं और नाक है तो जिह्वा नहीं। अगर अन्य सब कुछ है तो प्रतिभा नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसारी प्राणियों में प्रायः कोई न कोई त्रुटि अवश्य देखने में आती है, परन्तु मेरा शरीर सब तरह से परिपूर्ण है। तब इस प्रकार के अविकृत शरीर को प्राप्त करके भी यदि मैं जन्म-मरण के दुःखजाल से छूटने का उपाय नहीं करूंगा तो मेरे से बढ़ कर प्रमादी कौन हो सकता है ? चिन्तामणि रत्न के समान प्राप्त हुए इस मानव शरीर को यूं ही कामभोगों में लगा कर व्यर्थ खो देना तो निरी मूर्खता है। ऐसे उत्तम शरीर से तो अच्छे से अच्छा काम लेने में ही इस की सफलता है। इस के द्वारा तो किसी ऐसे पुण्यकार्य का संपादन करना चाहिए कि फिर इस संसार की अन्धकारपूर्ण गर्भ की कालकोठरी में आने का अवसर ही न मिले। ऐसा कार्य तो धर्म का सम्यक् अनुष्ठान ही है। जन्म-मरण के भय से त्राण देने वाला और कोई पदार्थ नहीं है। परन्तु धर्म का सम्यक् पालन तभी शक्य हो सकता है जब कि आरम्भ और परिग्रह का त्याग किया जाए। गृहस्थ में रह कर आरम्भ और परिग्रह का सर्वथा त्याग करना तो किसी तरह भी शक्य नहीं है। वहां तो अनेकों प्रकार के प्रतिबन्ध . सामने आ खड़े होते हैं, जिन का निवारण करना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव सा हो जाता 916 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध