________________ और विचिकित्सा (फल में सन्देह लाना) नहीं थी। उस ने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था, वह शास्त्र का अर्थ-रहस्य निश्चितरूप से धारण किए हुए था। उस ने शास्त्र के सन्देहजनक स्थलों को पूछ लिया था, उन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन का विशेषरूप से निर्णय कर लिया था, उस की हड्डियां और मज्जा सर्वज्ञदेव के प्रेम-अनुराग से अनुरक्त हो रही थी अर्थात् निग्रंथप्रवचन पर उस का अटूट प्रेम था। हे आयुष्मन् ! वह सोचा करता था कि यह निग्रंथप्रवचन ही अर्थ (सत्य) है, परमार्थ है (परम सत्य है), उस के बिना अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) हैं। उस की उदारता के कारण उस के भवन के दरवाजे की अर्गला ऊंची रहती थी और उसका द्वार सब के लिए सदा खुला रहता था। वह जिस के घर या अन्तःपुर में जाता उस में प्रीति उत्पन्न किया करता था, तथा वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण-रागादि से निवृत्तिप्रत्याख्यान, पौषध, उपवास तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करता था। श्रमणों-निर्ग्रन्थों को निर्दोष और ग्राह्य अशन, पान, खादिम और ' स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध और भेषज आदि देता हुआ महान् लाभ को प्राप्त करता तथा यथाप्रगृहीत तपकर्म के द्वारा अपनी आत्मा को भावित-वासित करता हुआ विहरण कर रहा था। इस वर्णन में श्रमणोपासक की तत्त्वज्ञानसम्बन्धी योग्यता, प्रवचननिष्ठा, गृहस्थचर्या और चारित्रशुद्धि की उपयुक्त धार्मिक क्रिया आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का समावेश किया गया है। गृहस्थावास में रहते हुए धर्मानुकूल गृहसम्बन्धी कार्यों का यथाविधि पालन करने के अतिरिक्त उस का आत्मश्रेय साधनार्थ क्या कर्तव्य है और उस के प्रति सावधान रहते हुए नियमानुसार उस का किस तरह से आचरण करना चाहिए इत्यादि अनुकरणीय और आचरणीय विषयों का भी उक्त वर्णन से पर्याप्त बोध मिल जाता है। ३-पौषधोपवास-धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं अपितु आचरण की वस्तु है। जैसे औषधि का नाम उच्चारण करने से रोग की निवृत्ति नहीं हो सकती और तदर्थ उस का सेवन आवश्यक है। इसी प्रकार धर्म का श्रवण करने के अनन्तर उस का आचरण करना आवश्यक होता है। बिना आचरण के धर्म से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। जब तक धर्म का श्रवण कर के पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उस का आचरण न किया जाए तब तक उस से किसी प्रकार का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकेगा। इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में कुशल श्री सुबाहुकुमार ने उन दोनों के अनुसार चारित्रमूलक पौषधोपवास व्रत का अनुष्ठान करने में 1. शीलव्रत से पांचों अणुव्रतों का ग्रहण करना चाहिए। शीलव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों की व्याख्या - इसी अध्ययन में पीछे की जा चुकी है। 908 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध