________________ का सम्यग् ज्ञाता प्रमाणित किया गया है। चेतना-विशिष्ट पदार्थ को जीव और चेतनारहित जड़ पदार्थ को अजीव कहते हैं। इन दोनों का भेदोपभेद सहित सम्यग् बोध रखने वाला व्यक्ति अभिगतजीवाजीव कहलाता है। इस के अतिरिक्त श्री सुबाहुकुमार के सात्त्विक ज्ञान और चारित्रनिष्ठा एवं धार्मिक श्रद्धा के द्योतक और भी बहुत से विशेषण हैं, जिन्हें सूत्रकार ने "जाव-यावत्" पद से सूचित कर दिया है। वे सब इस प्रकार हैं उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणबन्धमोक्खकुसले, असहेजदेवयासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजे, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धढे गहियढे पुच्छियढे अहिगयढे विणिच्छियढे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेढे, सेसे अणट्टे, ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोपवासेहिं चाउद्दसट्ठाविट्ठपुण्णमासिणीसुपडिपुण्णं पोसहं सम्अणुपालेमाणे समाणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिगहकेबलपायपुंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणे अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरइ। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है वह सुबाहुकुमार जीव, अजीव के अतिरिक्त पुण्य (आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीर की भांति मिले हुए शुभं कर्मपुद्गल) और पाप (आत्मप्रदेशों से मिले हुए अशुभ कर्मपुद्गल) के स्वरूप को भी जानता था। इसी प्रकार आस्रव', संवर२, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण', बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का ज्ञाता था, तथा किसी भी कार्य में वह दूसरों की सहायता की आशा नहीं रखता था। अर्थात् वह निर्ग्रन्थप्रवचन में इतना दृढ़ था कि देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, * राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवविशेष भी उसे निग्रंथ प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। उसे निर्ग्रन्थप्रवचन में शंका (तात्त्विकी शंका), कांक्षा (इच्छा) जीव, अजीव, प्रभृति पदार्थों का सम्यग् बोध प्राप्त कर लिया है, उसे अभिगतजीवाजीव कहते हैं। श्री सुबाहुकुमार को इन का सम्यग् बोध था, इसलिए उस के साथ यह विशेषण लगाया गया है। १-शुभ और अशुभ कर्मों के आने का मार्ग आस्रव होता है। २-शुभ और अशुभ कर्मों के आने के मार्ग को रोकना सम्वर कहलाता है। ३-आत्मप्रदेशों से कर्मवर्गणाओं का देशतः या सर्वतः क्षीण होना निर्जरा कहलाती है। ४-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टाओं को क्रिया कहते हैं और वह 25 प्रकार की होती हैं। ५कर्मबन्ध के साधन-उपकरण या शस्त्र को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण भेद से दो प्रकार का होता है। ६-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों के साथ दूध पानी की तरह मिलने अर्थात् जीवकर्म संयोग को बन्ध कहते हैं। ७-कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेशों से आत्यन्तिक सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष कहलाता है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [907