________________ अष्टमभक्त-तीन दिन का अविरत उपवास। पगेण्हइ-ग्रहण करता है। पोसहसालाए-पौषधशाला में। पोसहिए-पौषधिक-पौषधव्रत धारण किए हुए वह। अट्ठमभत्तिए-अष्टमभक्तिक-अष्टमभक्तसहित। पोसहं-पौषध-अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में करने योग्य जैन श्रावक का व्रतविशेष, अथवा आहारादि के त्यागपूर्वक किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठानविशेष का। पडिजागरमाणे पडिजागरमाणेपालन करता हुआ, 2 / विहरइ-विहरण करने लगा। ___मूलार्थ-भगवन् ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुंडित हो कर गृहस्थावास को त्याग कर अनगारधर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? .. भगवान्-हां गौतम ! है, अर्थात् प्रव्रजित होने में समर्थ है। तदनन्तर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार कर संयम और तप के द्वारा आत्मभावना करते हुए विहरण करने लगे, अर्थात् साधुचर्या के अनुसार समय बिताने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार कर अन्य देश में भ्रमण करना आरम्भ कर दिया। इधर सुबाहुकुमार जो कि श्रमणोपासक-श्रावक बन चुका था और जीवाजीवादि पदार्थों का जानकार हो गया था, आहारादि के दान द्वारा अपूर्व लाभ प्राप्त करता हुआ समय बिता रहा था। तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिनों में से किसी एक दिन पौषधशाला में जाकर वहां की प्रमार्जना कर, उच्चार और प्रस्रवण भूमि का निरीक्षण करने के अनन्तर वहां कुशासन बिछा कर, उस पर आरूढ़ हो कर अष्टमभक्त-तीन उपवास को ग्रहण करता है, ग्रहण कर के पौषधशाला में पौषधयुक्त हो कर यथाविधि उस का पालन करता हुआ अर्थात् तेलापौषध कर के विहरण करने लगा-धार्मिक क्रियानुष्ठान में समय व्यतीत करने लगा। .. टीका-प्रस्तुत मूलपाठ में सुबाहुकुमार से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य-१-गौतम स्वामी का प्रश्न और भगवान् का उत्तर। २-सुबाहुकुमार का तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाला सम्यक् बोध / ३-ग्रहण किए गए देशविरतिधर्म का सम्यक् पालन-इन तीन बातों का वर्णन किया गया है। इन तीनों का ही यहां पर क्रमशः विवेचन किया जाता है १-क्या भगवन् ! यह सुबाहुकुमार जिस ने आपश्री की सेवा में उपस्थित हो कर गृहस्थधर्म को स्वीकार किया है, वह कभी आपश्री से सर्वविरतिधर्म-साधुधर्म को भी अंगीकार करेगा? वह सर्वविरतिधर्म के पालन में समर्थ होगा ? तात्पर्य यह है कि आपश्री के पास मुण्डित हो कर अगार-घर को छोड़ कर अनगारता को प्राप्त करने-गृहस्थावास को त्याग द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [903