________________ यहां पर "-सुहम्मे-" यह पाठ कुछ संगत नहीं जान पड़ता और यदि "-स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया-" इस न्याय के अनुसार सूत्रगत पाठ पर विचार किया जाए तो सूत्रकार ने "सुधर्मा" यह "धर्मघोष" का ही दूसरा नाम सूचित किया हुआ प्रतीत होता है। अर्थात् सुदत्त अनगार के गुरुदेव धर्मघोष और सुधर्मा इन दोनों नामों से विख्यात थे। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले "सुहम्मे-सुधर्मा" इस पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि "-सुहम्मे थेरे-" त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः। धर्मशब्दसाम्यात् शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात्-इस प्रकार कहते हैं। तात्पर्य यह है कि "सुधर्मा और धर्मघोष" इन दोनों में धर्म शब्द समान है, उस समानता को लेकर ये दो शब्द एक ही अर्थ के परिचायक हैं। सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष से सुधर्मा का ग्रहण होता है। यहां पर उल्लेख किए गए "-सुहम्मे थेरे-" शब्द से जम्बूस्वामी के गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भूल तो कभी भी नहीं होनी चाहिए। उन का इन से कोई सम्बन्ध नहीं है। .. सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश करने के अनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तए णं से सुमुहे गाहावई सुदत्तं अणगारं एज्जमाणं पासइ पासित्ता हठ्ठतुढे आसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता एगसाडियं उत्त० सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्गच्छइ पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आया वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयहत्थेणं विउलेणं असणं पाणं 4 पडिलाभेस्सामि त्ति कट्ट तुढे 3 / तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं 3 तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकए, मणुस्साउए निबद्धे, गिहंसि य से इमाइं पञ्च दिव्वाइं पाउब्भूयाई, तंजहा-१-वसुहारा वुट्ठा, २-दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, ३चेलुक्खेवे कए, ४-आहयाओ देवदुन्दुहीओ, ५-अंतरा वि य णं आगासंसि अहोदाणं अहोदाणं घुटुं।हत्थिणाउरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ ४-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव तं धन्ने 5 / से सुमुहे गाहावई बहूई वाससयाइं आउयं पालेइ पालित्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव हत्थिसीसए णगरे अदीणसत्तुस्स रण्णो धारिणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए 884 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध