________________ भारतवर्ष का सुवर्णमय युग था, जिसे लगभग तीन हजार वर्ष से भी अधिक समय हो चुका है। उस समय जितना सस्तापन था उसकी तो आज कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसे सस्तेपन के ज़माने में सुमुख गृहपति के द्वारा दिए आहार की कीमत भी बहुत कम ही होगी, तब इतनी साधारण चीज़ के बदले में देवों ने सुवर्ण जैसी महाद्य वस्तु की वृष्टि की इस का क्या कारण - उत्तर-इस का मुख्य कारण यही था कि दाता के भाव नितान्त शुद्ध थे। इसी कारण दान का मूल्य बढ़ गया, अतः देवों ने स्वर्ण की वर्षा की। वास्तव में देखा जाए तो देय वस्तु का मूल्य नहीं आंका जाता, वह स्वल्प मूल्य की हो या अधिक की। मूल्य तो भावना का होता है। बिना भावना के तो जीवन अर्पण किया हुआ भी किसी विशिष्ट फल को नहीं दे सकता। इस लिए दानादि समस्त कार्यों में भावना ही मूल्यवती है। प्रश्न-सुमुख गृहपति ने श्री सुदत्त मुनि को दान देने पर मनुष्य का आयुष्य बांधा, इस कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस ने मिथ्यात्व की दशा में दान दिया, दूसरे शब्दों में वह मिथ्यात्वी था या होना चाहिए। उत्तरः-श्री सुमुख गृहपति को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि कहना भूल करना है। संयमशील मुनिजनों में उस की जैसी अनन्य श्रद्धा थी, वैसी तो आजकल के उत्कृष्ट श्रावकों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार की आन्तरिक भक्ति सम्यग्दृष्टि में ही हो सकती है और इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के जो-जो चिन्ह होते हैं, उन से वह सर्वथा परिपूर्ण था। प्रश्न-श्री भगवती सूत्र शतक 30 उद्देश्य 1 में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा पशु वैमानिक देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति का बन्ध नहीं करता, परन्तु सुमुख गृहपति ने सम्यग्दृष्टि होते हुए भी मनुष्य आयु का बन्ध किया, देवगति का नहीं। इस से प्रमाणित होता है कि वह सम्यग्दृष्टि नहीं था। अगर सम्यग्दृष्टि होता तो वैमानिक देव बनता, मनुष्य नहीं। ___उत्तर-श्री भगवतीसूत्र में जो कुछ लिखा है, उस से सुमुख गृहपति का सम्यग्दृष्टि होना निषिद्ध नहीं हो सकता। वहां लिखा है कि जो मनुष्य और तिर्यंच विशिष्ट क्रियावादी (सम्यग्दृष्टि) होते हैं और निरतिचार व्रतों का पालन करते हैं वे ही वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं। इस से स्पष्ट विदित होता है कि भगवती सूत्र का उक्त कथन सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिए नहीं किन्तु विशेष के लिए है। प्रश्न-श्री भगवती सूत्र में इस विषय का जो पाठ है उस में मात्र "क्रियावादी" पद है विशिष्ट क्रियावादी नहीं। ऐसी दशा में उस का विशिष्ट क्रियावादी अर्थ मानने के लिए कौन द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [891