________________ है। हर्षध्वनि सुपात्रदान की प्रशंसासूचक है और सुवर्णवृष्टि उस की सफल अनुमोदना है। अब रही पुण्य और पाप की बात ? सो इस का उत्तर स्पष्ट है। जबकि सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का हेतु है तो उस की प्रशंसा या अनुमोदना को पापजनक कैसे माना जा सकता है ? सारांश यह है कि स्वर्णवृष्टि और हर्षध्वनि से देवों ने किसी प्रकार के पाप का संचय नहीं किया प्रत्युत पुण्य का उपार्जन किया है। इस कथासंदर्भ से यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि जो लोग यह समझते या सोचते हैं कि हाय! हम न तो करोड़पति हैं, न लखपति / यदि होते तो हम भी दान करते, वे भूल करते हैं। सुमुख गाथापति ने कोई करोड़ों या लाखों का दान नहीं किया किन्तु थोड़े से अन्न का दान दिया था। उसी ने उस के संसार को परिमित कर दिया। अतः इस सम्बन्ध में किसी को भी निराश नहीं होना चाहिए। दान की कोई इयत्ता नहीं होती, वह थोड़ा भी बहुत फल देता है और बहुत भी निष्फल हो सकता है। दान की सफलता और विफलता का आधार - तो दाता के भावों पर निर्भर ठहरता है। देय वस्तु स्वल्प हो या अधिक इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, अन्तर का कारण तो भावना है। दान देते समय दाता के हृदय में जैसी भावना होगी उसी के अनुसार ही फल मिलेगा। भावना का वेग यदि साधारण होगा तो साधारण फल मिलेगा और यदि वह असाधारण होगा तो उस का फल भी असाधारण ही प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि पाप-पुण्य और निर्जरा में सर्वप्राधान्य भावना को ही प्राप्त है। भावनाशून्य हर एक अनुष्ठान निस्सार एवं निष्प्रयोजन है। संसार में दान का कितना महत्त्व है यह सुमुख गाथापति के जीवन से सहज ही में ज्ञात हो जाता है। वास्तव में दान के महत्त्व को समझाने के लिए ही इस कथासन्दर्भ का निर्माण किया गया है, अन्यथा गौतमस्वामी अपने ज्ञानबल से स्वयमेव सब कुछ जान लेने में समर्थ थे। ऐसा न कर सब के सन्मुख सुमुख गृहपति के जीवन को भगवान् से पूछने का यत्न करना निस्संदेह सांसारिक प्राणियों को दान की महिमा समझाने के लिए ही उन का पावन प्रयास है, तथा दान के प्रभाव को दिखाने के निमित्त ही सूत्रकार ने सुमुख गृहपति को, कई सौ वर्ष तक सानंद जीवन व्यतीत करने के अनन्तर मृत्युधर्म को प्राप्त हो कर महाराज अदीनशत्रु की सती साध्वी धारिणी देवी के गर्भ में पुत्ररूप से उत्पन्न होने और जन्म लेकर वहां के विपुल ऐश्वर्य का उपभोग करने वाला कहा है। 1. भावना के सम्बन्ध में निम्नोक्त वीरवाणी मननीय है-' भावणाजोगसुद्धप्पा, जले नावा हि आहिया। नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ॥ (सूयगडांगसूत्र श्रुतस्कंध 1, अ० 15, गाथा 6) 894] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध