________________ साधुजनों को भी इष्ट था। साधुजन न तो स्वार्थपरायण होते हैं और न ही आसक्तिप्रिय। फिर भी उन्हें जो रूप इष्ट प्रतीत होता है वह कुछ साधारण नहीं अपितु अलौकिक होता है। उस की इष्टता कुछ विभिन्न ही होती है। गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार के रूप को जो इष्ट बताया है, उस का आशय यह है कि जो रूप दूसरों को कल्याणमार्ग में इष्ट प्रतीत हो और जिसे देख कर दर्शक की कल्याणमार्ग की ओर प्रवृत्ति बढ़े, वह रूप इष्ट है। जिस रूप पर दृष्टिपात होते ही पाप कांप उठता है या प्रस्थान कर जाता है और अन्तरंग में दबी हुई विशुद्ध धर्मभावना खिल उठती है, वह रूप इष्टकारी है। इस बात की पुष्टि के लिए पाठकों को अपने पूर्वजों के जीवनवृत्तान्त पर दृष्टिपातं करना होगा। एक ओर वल्कलवस्त्रधारी महाराज राम हों और दूसरी ओर अनेक उत्तमोत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रावण हो, तब इन दोनों में किस का रूप इष्ट है? सोचिए और विचार कीजिए कि राम का रूप इष्ट है या रावण का ? विचारक की दृष्टि में राम का रूप ही इष्ट हो सकता है, कारण कि उस में नैतिक और आध्यात्मिक सौन्दर्य है। उस की अपेक्षा रावण के कृत्रिम शारीरिक सौन्दर्य या विभूषा का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसी दृष्टि से गौतम स्वामी सुबाहुकुमार के रूप को इष्ट, कान्त और मनोज्ञ शब्दों से विशेषित कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो-बहुजनसमाज को जो प्रिय लगता है, वह इष्ट कहलाता है-यह कह सकते हैं / जिस का रूप देख कर जनसमाज-यह मेरा है-यह मेरा है-कह उठे, पुकार उठे वह इष्टरूप है। इष्टकारी रूप नीतिज्ञता, सुशीलता और धार्मिकता पर निर्भर रहा करता है। जो व्यक्ति जितना नीतिज्ञ, सुशील और धर्मनिष्ठ होगा उस का रूप उतना ही इष्टकारी होता है। इस के विपरीत जिस व्यक्ति के देखने से दर्शक के हृदय में पाप वासनाओं का प्रादुर्भाव हो वह देखने में भले ही सुन्दर मालूम दे परन्तु वह इष्ट या कांतरूप नहीं कहा जा सकता है। . इष्ट और कान्त में क्या अन्तर है ? इसे भी समझ लेना चाहिए। कोई वस्तु इष्टकारी तो होती है परन्तु वह किसी के लिए इच्छा करने योग्य नहीं भी होती, अथवा देशकाल के अनुसार कमनीय है मगर कभी-कभी कमनीय नहीं भी रहती। इसे उदाहरण से समझिए घी और दूध को लें। घी और दूध इष्टकारी माना जाता है, परन्तु पर्याप्त भोजन कर लेने के पश्चात् क्या कोई उस को चाहता है नहीं। उस समय घी, दूध कमनीय नहीं रहता, क्योंकि उस में रुचि का अभाव होता है, उस में रुचि नहीं होती। यह दोष श्री सुबाहुकुमार में नहीं था। वह कभी अरुचिजनक रूप वाला नहीं होता। उस का रूप सदैव आल्हादजनक रहता है। अतः सुबाहुकुमार इष्ट, इष्टरूप, कान्त और कान्त रूप वाला कहा गया है, अर्थात् वह इष्टकारी होने के साथ-साथ सदा कमनीय भी है। इस से इष्ट और कान्त में जो विभिन्नता है, द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [861