________________ समुच्चयरूप से उस का अर्थ निषिद्ध बुरे कामों से निवृत्त होना और विहित-अच्छे कामों में प्रवृत्ति करना है। अर्थात् शास्त्रगर्हित हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, द्यूत और मदिरापानादि से निवृत्त होना और शास्त्रानुमोदित-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और स्वस्त्रीसन्तोष एवं सत्संग और शास्त्रस्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करना शील कहलाता है। परस्त्रीत्याग और स्वस्त्रीसन्तोष तो शील के अनेक अर्थों में से दो हैं। इतना मात्र आचरण करने वाला शीलव्रत के मात्र एक अंग का आराधक माना जा सकता है, सम्पूर्ण का नहीं। ___गौतम स्वामी का आठवां प्रश्न श्रवण के सम्बन्ध में है। अर्थात् उस ने ऐसे कौन से कल्याणकारी वचनों का श्रवण किया है जिन के प्रभाव से उस को इस प्रकार की लोकोत्तर कीर्ति का लाभ एवं संप्राप्ति हुई है। इस कथन से त्यागशील धर्मपरायण मुनिजनों या गुरुजनों का बड़ा महत्त्व प्रदर्शित होता है, कारण कि धर्मगुरुओं के मुखारविन्द से निकला हुआ धर्मोपदेश जितना प्रभावपूर्ण होता है और उसका जितना विलक्षण असर होता है, उतना ' प्रभावशाली सामान्य पुरुषों का नहीं होता। आचरणसम्पन्न व्यक्ति के एक वचन का श्रोता पर जितना असर होता है, उतना आचरणहीन व्यक्ति के निरन्तर किए गए उपदेश का भी नहीं होता। तपोनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों की आत्मा धर्म के रंग में निरन्तर रंगी हुई रहती है, उन के वचनों में अलौकिक सुधा का संमिश्रण होता है, जिस के पान से श्रोतृवर्ग की प्रसुप्त हृदयतंत्री में एक नए ही जीवन की नाद प्रतिध्वनित होने लगता है। वे आत्मशक्ति से ओतप्रोत होते हैं। जिन के वचनों में आत्मिक शक्ति का मार्मिक प्रभाव नहीं होता, वे दूसरों को कभी प्रभावित नहीं कर सकते। उन का तो वक्ता के मुख से निकल कर श्रोताओं के कानों में विलीन हो जाना, इतना मात्र ही प्रभाव होता है। इसलिए चारित्रशील व्यक्ति से प्राप्त हुआ सारगर्भित सदुपदेश ही श्रोताओं के हृदयों को आलोकित करने तथा उन के प्रसुप्त आत्मा को प्रबुद्ध करने में सफल हो सकता है। हाथी का दान्त जब उस के पास अर्थात् मुख में होता है, तो वह उस से नगर के मजबूत से मजबूत किवाड़ को भी तोड़ने में समर्थ होता है। तात्पर्य यह है कि हाथी के मुख में लगा हुआ दान्त इतना शक्तिसम्पन्न होता है कि उस से दृढ़ किवाड़ भी टूट जाता है, पर वह दान्त जब हाथी के मुख से पृथक् हो कर, खराद पर चढ़े चूड़े का रूप धारण कर लेता है तब वह सौभाग्यवती महिलाओं के करकमलों की शोभा बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ भी करने लायक नहीं रहता। उस में से वह उग्रशक्ति विलुप्त हो जाती है। यही दशा धर्मप्रवचन या धर्मोपदेशक की है। चारित्रनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों का प्रवचन हाथी के मुख में लगे हुए दान्त . के समान होता है और स्त्रियों के हाथ में पहने हुए दान्त के चूड़े के समान चारित्ररहित सामान्य 872 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध