________________ निर्वाह कैसे होता होगा ? इतने मुनियों को निर्दोष भिक्षा कैसे मिलती होगी ? उत्तर-उस समय आर्यावर्त में अतिथिसत्कार की भावना बहुत व्यापक थी। अतिथिसेवा करने को लोग अपना अहोभाग्य समझते थे। भिक्षु को भिक्षा देने में प्रत्येक व्यक्ति उदारचित्त था। ऐसी परिस्थिति में हस्तिनापुर जैसे विशाल क्षेत्र में 500 मुनियों का निर्वाह होना कुछ कठिन नहीं किन्तु नितान्त सुगम था। इस में कोई आशंका वाली बात नहीं है। अथवा पांच सौ मुनियों को साथ ले कर विचरने का यह भी तात्पर्य हो सकता है कि धर्मघोष आचार्य की निश्राय में, उन की आज्ञा में 500 मुनि विचरते थे। दूसरे शब्दों में उन का शिष्य मुनिपरिवार 500 था, जिस के साथ वे ग्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश से जनता को कृतार्थ करते थे। इस में कुछ मुनियों का साथ में आना, कुछ का पीछे रहना और कुछ का अन्य समीपवर्ती ग्रामों में विचरण करना आदि भी संभव हो सकता है। इस प्रकार भी ऊपर का प्रश्न समाहित किया जा सकता है। __ साधुओं का जीवन बाह्य बन्धनों से विमुक्त होता है, उन पर-"आज इसी ग्राम में ठहरना है या इसे छोड़ ही देना है" इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, इसी बात को सूचित करने के लिए "पुव्वाणुपुव्विं" यह पद दिया है। अर्थात् धर्मघोष आचार्य मुनियों के साथ पूर्वानुपूर्वी-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते थे। उन्हें किसी ग्राम को छोड़ने की जरूरत नहीं होती थी। वे तो जहां जाते वहां धर्मसुधा की वर्षा करते, उन्हें किसी को वंचित रखना अभीष्ट नहीं था। वास्तव में संयमशील मुनिजनों के ग्रामानुग्राम विचरने से ही धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। इसीलिए साधु को चातुर्मास के बिना एक स्थान पर स्थित न रह कर सर्वत्र विचरने का शास्त्रों में आदेश दिया गया है। धर्मघोष स्थविर के प्रधान शिष्य का नाम सुदत्त था। सुदत्त अनगार जितेन्द्रिय और तपस्वी थे। तपोमय जीवन के बल से ही उन्हें तेजोलेश्या की उपलब्धि हो रही थी। उन की तपश्चर्या इतनी उग्र थी कि वे एक मास का अनशन करते और एक दिन आहार करते. अर्थात महीने-महीने पारणा करना उन की बाह्य तपस्या का प्रधानरूप था और इसी चर्या में वे अपने साधुजीवन को बिता रहे थे। ___अन्तेवासी का सामान्य अर्थ समीप में रहने वाला होता है, पर समीप रहने का यह अर्थ नहीं कि हर समय गुरुजनों के पीछे-पीछे फिरते रहना, किन्तु गुरुजनों के आदेश का सर्वथा पालन करना ही उनके समीप रहना है। गुरुजनों के आदेश को शिरोधार्य कर के उस का सम्यग् अनुष्ठान करने वाला शिष्य ही वास्तव में अन्तेवासी (अन्ते समीपे वसति तच्छीलः) होता है। 878 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध