________________ व्यक्ति, २-मुनिजन-त्यागशील या यति लोग। प्रकृत में ये दोनों ही अर्थ सुसंगत हैं।) . सुबाहुकुमार की उक्त रूपविशिष्ट गुणसम्पदा से आकृष्ट हुए गौतम स्वामी उस के चले जाने के अनन्तर भगवान् महावीर से पूछते हैं कि भगवन् ! सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य उपार्जित किया है, जिस के फलस्वरूप इसे इस प्रकार की उदार मानवीय ऋद्धि की उपलब्धि-संप्राप्ति और समुपस्थिति हुई है ? गौतम स्वामी के प्रश्नों को टीकाकार के शब्दों में कहें तो-किण्णा लद्धा ? केन हेतुनोपार्जिता ? किण्णा पत्तेति ? केन हेतुना प्राप्ताउपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता? किण्णा अभिसमन्नागया ?त्ति-प्राप्तापि सती केन हेतुना आभिमुख्येन सांगत्येन चोपार्जनस्य च पश्चात् भोग्यतामुपगतेति-अर्थात् किस कारण से इस ने उपार्जित की है, और किस हेतु से उपार्जित की हुई को प्राप्त किया है ? तथा उपार्जित और प्राप्त का उपभोग में आने का क्या कारण है ?-ऐसा कहा जा सकता है। मूल में - "लद्धा, पत्ता, अभिसमन्नागया"-ये तीन पद दिए हैं, जिन का संस्कृत प्रतिरूप-लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता-होता है। तब लब्धा, प्राप्ता और समन्वागता में जो अन्तर अर्थात् अर्थविभेद है, उस को समझ लेना भी आवश्यक है। इन की अर्थविभिन्नता को निनोक्त उदाहरण के द्वारा पाठक समझने का यत्न करें ___ कल्पना करो कि किसी मनुष्य को उस के काम के बदले राजा की तरफ से उसे पारितोषिक-इनाम के रूप में कुछ धन देने की आज्ञा हुई। द्रव्य देने वाले खजांची को भी आदेश कर दिया गया, पर अब तक वह पारितोषिक-इनाम उस को मिला नहीं। इस अवस्था में उस इनाम को लब्ध कहेंगे, अर्थात् इनाम देने की आज्ञा तक तो वह लब्ध है और उस के मिल जाने पर वह प्राप्त कहलाता है। यह तो हुआ लब्ध और प्राप्त का भेद। अब "समन्वागत" के अर्थविभेद को देखिए-लब्ध और प्राप्त हुए द्रव्य का उपभोग करना, उसे अपने व्यवहार में लाना अभिसमन्वागत कहलाता है। मानवीय ऋद्धि के रूप में इन तीनों का समन्वय इस प्रकार है-मनुष्य शरीर की प्राप्ति के योग्य कर्मों का बांधना तो लब्ध है, और उस शरीर का मिल जाना है-प्राप्त, और मनुष्य शरीर को सेवादि कार्यों में लगाना उस का अभिसमन्वागत है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि एक मनुष्य को राजा की तरफ़ से इनाम देने का हुक्म हुआ और खजाने से उसे मिल भी गया, परन्तु बीमार पड़ जाने या और किसी अनिवार्य प्रतिबन्ध के उपस्थित हो जाने से वह उस का उपभोग नहीं कर.पाया, उसे अपने व्यवहार में नहीं ला सका, तब उस इनाम का उपलब्ध और प्राप्त होना, न होने के समान है। अतः प्राप्त हुए का यथारुचि सम्यक्तया उपभोग करने का नाम ही अभिसमन्वागत है अर्थात् जो भली प्रकार से उपभोग में आ सके उसे अभिसमन्वागत कहते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [865