________________ किस-किस के हृदय में किस-किस प्रकार की भावनाएं उत्पन्न हुई होंगी? उन सभी का उल्लेख यहां पर नहीं किया गया, परन्तु भगवान् के प्रधान शिष्य श्री इन्द्रभूति जो कि गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं, को वहां बैठे-बैठे जो विचार आए उन का वर्णन यहां पर किया गया है। सुबाहुकुमार की रूपलावण्यपूर्ण भद्र और मनोहर आकृति तथा सौम्य स्वभाव एवं मृदु वाणी आदि को देख कर गौतम स्वामी विचारने लगे कि सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है, जिस के प्रभाव से इस को इस तरह की लोकोत्तर मानवी ऋद्धि संप्राप्त हुई है ? इसके अतिरिक्त इस की सुदृढ़ धार्मिक भावना और चारित्रनिष्ठा की अभिरुचि तो इस को और भी पुण्यशाली सूचित कर रही है। उस में एक साथ इतनी विशेषताएं बिना कारण नहीं आ सकतींइत्यादि मनोगत विचारपरम्परा से प्रेरित हुए गौतम स्वामी ने इस विषय की जिज्ञासा को भगवान् के पास व्यक्त करने का विचार किया और भगवान् से सुबाहुकुमार में एक साथ उपलब्ध होने वाली विशेषताओं का मूलकारण जानना चाहा। अन्त में वे भगवान् से बोलेप्रभो ! सुबाहुकुमार इष्ट है, इष्ट रूप वाला है, कान्त है, कान्त रूप वाला है, प्रिय है, प्रिय रूप वाला है, मनोज्ञ है, मनोज्ञ रूप वाला है, मनोम है, मनोम रूप वाला है, सौम्य है, सुभग है, प्रियदर्शन और सुरूप है। भगवन् ! सुबाहुकुमार को यह मनुष्य-ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? यह पूर्वभव में कौन था? इस का नाम क्या था? गोत्र क्या था ? इस ने क्या दान दिया था ? कौन सा भोजन खाया था ? क्या आचरण किया था ? किस वीतरागी पुरुष की वाणी को सुन कर इस के जीवन का निर्माण हुआ था ? इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सोम, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप इन की व्यापकता के लिए मूल में बहुजन और साधुजन ये दो पद दिए हैं। इस तरह उक्त इष्ट आदि 14 पदों का इन दो के साथ पृथक्-पृथक् सम्बन्ध करने से बहुजन इष्ट, बहुजन इष्टरूप, बहुजन कान्त, बहुजन कान्तरूप-इत्यादि तथा-साधुजन इष्ट, साधुजन इष्टरूप, साधुजन कान्त, साधुजन कान्तरूप इत्यादि सब मिला कर 28 भेद होते हैं, इन सब का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है जिस का प्रत्येक व्यापार या व्यवहार अनुकूल हो वह इष्ट होता है, सुबाहुकुमार का व्यावहारिक जीवन सब को प्रिय होने के नाते वह बहुजनइष्ट कहलाया और उस का (सुबाहुकुमार का) धार्मिक जीवन साधुओं को अनुकूल होने के कारण वह साधुजनइष्ट बना। जिसे जिस से स्वार्थ होता है अथवा जिस की जिस के प्रति आसक्ति होती है उसे उस का रूप इष्ट प्रतीत होता है, परन्तु सुबाहुकुमार का रूप ऐसा इष्ट नहीं था, इस बात को विस्पष्ट . करने के लिए ही यहां साधुजन शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् सुबाहुकुमार का रूप 860 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध