________________ योग्य हैं उन अचित्त पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना। अथवा अचित्त पदार्थों के निकट सचित्त पदार्थ रख देना। २-सचित्तपिधान-साधुओं के लेने योग्य अचित्त पदार्थों के ऊपर सचित्त पदार्थ ढांक देना, अर्थात् अचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढक देना। ३-कालातिक्रम-जिस वस्तु के देने का जो समय है वह समय टाल देना / काल का अतिक्रम होने पर यह सोच कर दान में उद्यत होना कि अब साधु जी तो लेंगे ही नहीं पर वह यह जानेंगे कि यह श्रावक बड़ा दातार है। ___४-परव्यपदेश-वस्तु न देनी पड़े, इस उद्देश्य से वस्तु को दूसरे की बताना। अथवा दिए गए दान के विषय में यह संकल्प करना कि इस दान का फल मेरे माता, पिता, भाई आदि को मिले। अथवा वस्तु शुद्ध है तथा दाता भी शुद्ध है परन्तु स्वयं न देकर दूसरे को दान के लिए कहना। ५-मात्सर्य-दूसरे को दान देते देख कर उस की ईर्ष्या से दान देना, अर्थात् यह बताने के लिए दान देना कि मैं उस से कम थोड़े हूं, किन्तु बढ़ कर हूं। अथवा मांगने पर कुपित होना और होते हुए भी न देना। अथवा कषायकलुषित चित्त से साधु को दान देना। श्रावक जो व्रत अंगीकार करता है वह सर्व से अर्थात् पूर्णरूप से नहीं किन्तु देशअपूर्णरूप से स्वीकार करता है। इसलिए श्रावक की आंशिक त्यागबुद्धि को प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है। पांचों अणुव्रतों को प्रोत्साहन मिलता रहे इसलिए तीन गुणव्रतों का विधान किया गया है। उन के स्वीकार करने से बहुत सी आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं। उन का संवर्द्धन रुक जाता है। बहुत से आवश्यक पदार्थों का त्याग कर के नियमित पदार्थों का उपभोग किया जाता है, परन्तु यह वृत्ति तभी स्थिर रह सकती है जब कि साधक में आत्मजागरण की लग्न हो तथा आत्मानात्मवस्तु का विवेक हो। एतदर्थ बाकी के चार शिक्षा-व्रतों का विधान किया गया है। आत्मा को सजग रखने के लिए उक्त चारों ही व्रत एक सुयोग्य शिक्षक का काम देते हैं। इसलिए इन चारों का जितना अधिक पालन हो उतना ही अधिक प्रभाव पूर्व के व्रतों पर पड़ता है और वे उतने ही विशुद्ध अथच विशुद्धतर होते जाते हैं। सारांश यह है कि श्रावक के मूलव्रत पांच हैं, उन में विशेषता लाने के लिए गुणव्रत और गुणव्रतों में विशेषता प्रतिष्ठित करने के लिए शिक्षाव्रत हैं। कारण यह है कि अणुव्रती को गृहस्थ होने के नाते गृहस्थसम्बन्धी सब कुछ करना पड़ता है। संभव है उसे सामायिक आदि करने का समय ही न मिले तो उस का यह अर्थ नहीं होता कि उस का गृहस्थधर्म नष्ट हो गया। गृहस्थधर्म का विलोप तो पांचों अणुव्रतों के भंग करने से होगा, वैसे नहीं। सो पांचों अणुव्रतों की पोषणा बराबर होती रहे। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [849