________________ ५-उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उबटन, आंवला, तैल, पुष्प, वस्त्र, आभूषण तथा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि उपभोग्य तथा परिभोग्य पदार्थों को अपने एवं आत्मीय जनों के उपभोग से अधिक रखना। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत स्वीकार करते समय जो पदार्थ मर्यादा में रखे गए हैं, उन में अत्यधिक आसक्त रहना, उन में आनन्द मान कर उन का पुनः पुनः प्रयोग करना अर्थात् उन का प्रयोग जीवननिर्वाह के लिए नहीं किन्तु स्वाद के लिए करना, जैसे-पेट भरा होने पर भी स्वाद के लिए खाना। श्रावक जो व्रत ग्रहण करता है वह देश से ग्रहण करता है, सर्व से नहीं। उस में त्याग की पूर्णता नहीं होती। इसलिए उस की त्यागबुद्धि को सिंचन का मिलना आवश्यक होता है। बिना सिंचन के मिले उस का पुष्ट होना कठिन है। इसीलिए सूत्रकार ने अणुव्रतों के सिंचन के लिए तीन गुणव्रतों का विधान किया है। गुणव्रतों के आराधन से श्रावक की आवश्यकताएं सीमित हो जाती हैं और श्रावक पुद्गलानंदी न रह कर मात्र जीवननिर्वाह के लिए पदार्थों का उपभोग करता है तथा जीवन में अनावश्यक प्रवृत्तियों के त्याग के साथ-साथ आवश्यक प्रवृत्तियों में भी वह निवृत्तिमार्ग के लिए सचेष्ट रहता है, परन्तु उस की उस निवृत्तिप्रधान चेष्टा को सदैव बनाए रखने के लिए और उस में प्रगति लाने के लिए किसी शिक्षक एवं प्रेरक सामग्री की आवश्यकता रहती है। बिना इस के शिथिलता का होना असंभव नहीं है। इसीलिए सूत्रकार ने 4 शिक्षाव्रतों का विधान किया है। ये चार शिक्षाव्रत पूर्वगृहीत व्रतों को दृढ़ करने में एवं उन की पालन की तत्परता में सहायक होते हैं। उन चार शिक्षाव्रतों के नाम और उन की व्याख्या निम्नोक्त है। १-सामायिकव्रत-जिस के अनुष्ठान से समभाव की प्राप्ति होती है, राग-द्वेष कम पड़ता है, विषय और कषाय की अग्नि शान्त होती है, चित्त निर्विकार हो जाता है, सावद्य प्रवृत्तियों को छोड़ा जाता है, तथा सांसारिक प्रपंचों की ओर आकर्षित न हो कर आत्मभाव में रमण किया जाता है, उस व्रत अर्थात् अनुष्ठान को सामायिक व्रत कहते हैं। जैनशास्त्रों में सामायिक का बहुत महत्त्व वर्णित हुआ है। सामायिक का यदि वास्तविक 1. जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसुय। ___तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // (श्री अनुयोगद्वारसूत्र) अर्थात् जो साधक त्रस-स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं॥ (आवश्यकनियुक्ति) अर्थात् जिस की आत्मा संयम में, तप में, नियम में सन्निहित-संलग्न हो जाती है, उसी की शुद्ध . सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। 840 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध