________________ करना ही पड़ता है। बिना कोई धन्धा किए गृहस्थ जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो सकतीं। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जीवन को चलाने के लिए गृहस्थ को कोई न कोई व्यापार करना ही होगा। व्यापार आर्य-प्रशस्त और अनार्य-अप्रशस्त इन विकल्पों से दो प्रकार का होता है। प्रशस्त का अभिप्राय है-जिस में पाप कर्म कम से कम लगे और अप्रशस्त का अर्थ है-जिस में पाप अधिकाधिक लगे। तात्पर्य यह है कि कुछ व्यापार अल्पपापसाध्य होते हैं. जबकि कुछ अधिकपापसाध्य। श्रावक अधिकपापसाध्य व्यापार न करे, इस बात को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के दो भेद कर दिए हैं। एक भोजन से दूसरा कर्म से। भोजन शब्द से उपभोग्य और परिभोग्य सभी पदार्थों का ग्रहण कर लिया जाता है। भोजनसम्बन्धी परिमाण किस भान्ति होना चाहिए, इस के सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है। रही बात कर्मसम्बन्धी परिमाण की। कर्म का अर्थ हैआजीविका। आजीविका का परिमाण कर्मसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणवत कहलाता है। तात्पर्य यह है कि उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए अधिकपापसाध्यजिस में महाहिंसा हो, व्यापार का परित्याग कर के अल्प पाप-साध्य व्यापार की मर्यादा करना। . भोजनसम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणवत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिए १-सचित्ताहार-जिस खान-पान की चीज में जीव विद्यमान हैं, उस को सचित्त कहते हैं। जैसे-धान, बीज आदि। जिस सचित्त का त्याग किया गया है उस का सेवन करना। २-सचित्तप्रतिबद्धाहार-वस्तु तो अचित्त है परन्तु वह यदि सचित्त वस्तु से सम्बन्धित हो रही है, उस का सेवन करना। तात्पर्य यह है कि यदि किसी का सचित्त पदार्थ को ग्रहण करने का त्याग है तो उसे सचित्त से सम्बन्धित अचित्त पदार्थ भी नहीं लेना चाहिए। जैसेमिठाई अचित्त है परन्तु जिस दोने में रखी हुई है वह सचित्त है, तब सचित्तत्यागी व्यक्ति को उस का ग्रहण करना निषिद्ध है। ३-अपक्वौषधिभक्षणता-जो वस्तु पूर्णतया पकने नहीं पाई और जिसे कच्ची भी नहीं कहा जा सकता, ऐसी अर्धपक्व वस्तु का ग्रहण करना। तात्पर्य यह है कि यदि किसी ने सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा है तो उसे जो पूरी न पकने के कारण मिश्रित हो रही है, उस वस्तु का ग्रहण करना नहीं चाहिए। जैसे-छल्ली, होलके (होले) आदि। ___४-दुष्पक्वौषधिभक्षणता-जो वस्तु पकी हुई तो है परन्तु बहुत अधिक पक गई है, पक कर बिगड़ गई है, उस का ग्रहण करना। अथवा-जिस का पाक अधिक आरम्भसाध्य द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [835