________________ तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ मनुष्य को उन्मत्त बनाते हैं, जिन के सेवन से बुद्धि नष्ट होती है, ऐसे पदार्थों का सेवन अनेकानेक हानियों का जनक होता है, अतः ऐसे व्यापार को नहीं करना चाहिए। ९-विषवाणिज्य-अफीम, संखिया आदि जीवननाशक पदार्थों का व्यवसाय करना, जिन के खाने या सूंघने से मृत्यु हो सकती है। १०-केशवाणिज्य-केश का अर्थ है-केश-बाल। लक्षणा से दास-दासी आदि द्विपदों का ग्रहण होता है, उन का व्यापार करना केशवाणिज्य है। प्राचीन काल में अच्छे केश वाली स्त्रियों का क्रय, विक्रय होता था और ऐसी स्त्रियां दासी बना कर भारत से बाहर यूनान आदि देशों में भेजी जाती थीं, जिस से अनेकानेक जघन्य प्रवृत्तियों को जन्म मिलता था। इसलिए श्रावक के लिए यह निन्द्य व्यवसाय भगवान् ने त्याज्य एवं हेय बताया है। ११-यन्त्रपीडनकर्म-यंत्रों-मशीनों द्वारा तिल, सरसों आदि या गन्ना आदि का तेल या रस निकाल कर अपनी आजीविका करना। इस व्यवसाय से त्रस जीवों की भी हिंसा होती . १२-निर्लाञ्छनकर्म-बैल, भैंसा, घोड़ा आदि को नपुंसक बनाने की आजीविका करना। इस से पशुओं को अत्यन्तात्यन्त पीड़ा होती है, इसलिए भगवान् ने श्रावक के लिए इस का व्यवसाय निषिद्ध कहा है। .. १३-दवाग्निदापनकर्म-वनदहन करना। तात्पर्य यह है कि भूमि साफ करने में श्रम न करना पड़े, इसलिए बहुत से लोग आग लगा कर भूमि के ऊपर का जंगल जला डालते हैं और इस प्रकार भूमि को साफ कर या करा कर अपनी आजीविका चलाते हैं, किन्तु प्रवृत्ति महान् हिंसासाध्य होने से श्रावक के लिए हेय है, त्याज्य है। . १४-सरोह्रदतडागशोषणकर्म-तालाब, नदी आदि के जल को सुखाने का धन्धा करना। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोग तालाब, नदी का पानी सुखा कर, वहां की भूमि को कृषियोग्य बनाने का धन्धा किया करते हैं, इस से जलीय जीव मर जाते हैं। अथवा बोए हुए धान्यों को पुष्ट करने के लिए सरोवर आदि से जल निकाल कर उन्हें सुखा देने की आजीविका करना, इस में त्रस और स्थावर जीवों की महान् हिंसा होती है। इसीलिए यह कार्य श्रावक के लिए त्याज्य है। १५-असतीजनपोषणकर्म-असतियों का पोषण कर के उन से आजीविका चलाना। तात्पर्य यह है कि कुछ लोग कुलटा स्त्रियों का इसलिए पोषण करते हैं कि उनसे व्यभिचार करा कर धनोपार्जन किया जाए, यह धन्धा अनर्थों का मूल और पापपूर्ण होने से त्याज्य है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [837