________________ बचते रहना चाहिए। इस के अतिरिक्त अस्तेयाणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नलिखित पांच कर्मों का त्याग अवश्य कर देना चाहिए १-चोर द्वारा चोरी कर के लाई हुई सोना, चांदी आदि वस्तु को लोभवश अल्प मूल्य में खरीदना अर्थात् चोरी का माल लेना। __२-चोरों को चोरी के लिए प्रेरणा करना या उन को उत्साह देना या उनकी सहायता करना अर्थात् तुम्हारे पास खाना नहीं है तो मैं देता हूँ, तुम्हारी अपहृत वस्तु यदि कोई बेचता नहीं तो मैं बेच देता हूँ, इत्यादि वचनों द्वारा चोरों का सहायक बनना। ३-विरोधी राज्य में उस के शासक की आज्ञा बिना प्रवेश करना या अपने राजा की आज्ञा के बिना शत्रुराजाओं के राज्य में आना तथा जाना या राष्ट्रविरोधी कर्म करना। अथवा कर-महसूल आदि की चोरी करना। .. ___ ४-झूठे माप और तोल रखना, तात्पर्य यह है कि तोलने के बाट और नापने के गज . . आदि हीनाधिक रखना, थोड़ी वस्तु देना और अधिक लेना। ५-बहु मूल्य वाली बढ़िया वस्तु में उसी के समान वर्ण वाली अल्प मूल्य वाली वस्तु मिला कर असली के रूप में बेचना। अथवा असली वस्तु दिखा कर नकली देना। अथवा नकली को ही असली के नाम से बेचना। ४-ब्रह्मचर्याणुव्रत-इसे स्वदारसन्तोषव्रत भी कहा जा सकता है। विधिपूर्वक विवाहिता स्त्री में सन्तोष करना तथा अपनी विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष औदारिकशरीरधारी अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च के शरीर को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ एक करण, एक योग से अर्थात् काय से परस्त्री का सेवन नहीं करूंगा, इस प्रकार तथा वैक्रियशरीरधारीदेवशरीरधारी स्त्रियों के साथ दो करण, तीन योग से मैथुनसेवनत्यागरूप चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। विषयवासनाएं जीवन का पतन करने वाली हैं और उन का त्याग जीवन को उन्नत एवं समुन्नत बनाने वाला है, अतः विवेकी पुरुष को इन्द्रियजन्य विषयों से सदा विरत रहना चाहिए। इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न भोग दुःख के ही कारण बनते हैं। इस तथ्य का गीता में बड़ी सुन्दरता से वर्णन किया गया है। वहां लिखा है ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय ! न तेषु रमते बुधः॥ (अध्ययन 5/22) अर्थात् जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को भ्रम से सुखरूप प्रतीत होते हैं, परन्तु ये निःसन्देह दुःख के ही कारण हैं और 826 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध