________________ प्रकार / उग्घोसेंति-उद्घोषणा करते हैं। तते णं-तदनन्तर (नगरस्थ)। ते-वे। बहवे-बहुत से। वेजा वा ६-वैद्य आदि / इमं-यह / एयारूवं-इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा को।सोच्चा-सुन कर। निसम्मअर्थरूप से अवधारण कर। जेणेव-जहां पर। विजए-विजयमित्र। राया-राजा था। तेणेव-वहां पर। उवागच्छन्ति 2 त्ता-आ जाते हैं, आकर। अतए-अंजू। देवीए-देवी के पास उपस्थित होते हैं, और। बहूहि-विविध प्रकार से। उप्पत्तियाहि-औत्पातिकी आदि। बुद्धिहिं-बुद्धियों के द्वारा। परिणामेमाणापरिणाम को प्राप्त कर अर्थात् निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए वे वैद्य। अञ्जूए देवीए-अंजूदेवी के (नाना प्रकार के प्रयोगों द्वारा)। जोणिसूलं-योनिशूल को। उवसामित्तए-उपशान्त करना। इच्छंतिचाहते हैं, अर्थात् यत्न करते हैं, परन्तु। उवसामित्तए-उपशान्त करने में। नो संचाएंति-समर्थ नहीं होते अर्थात् अंजूदेवी के योनिशूल को उपशांत दूर करने में सफल नहीं हो पाए। तते णं-तदनंतर। ते वेजा य ६-वे वैद्य आदि। जाहे-जब। अञ्जूए-अंजू। देवीए-देवी के / जोणिसूल-योनिशूल को। उवसामित्तएउपशान्त करने में। नो संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे-तब। तंता-तांत-खिन्न। संता-श्रांत, और। परितंता-हतोत्साह हुए 2 / जामेव-जिस। दिसं-दिशा से। पाउब्भूता-आए थे। तामेव-उसी.। दिसंदिशा को। पडिगता-वापिस चले गए। तते णं-तदनन्तर। सा-वह। अञ्जू देवी-अंजू देवी। ताए-उस। वेयणाए-वेदना से। अभिभूया-अभिभूत-युक्त। समाणी-हुई 2 / सुक्का-सूख गई। भुक्खा -भूखी रहने लगी। निम्मंसा-मांसरहित हो गई। कट्ठाई-कष्टहेतुक। कलुणाई-करुणोत्पादकं / वीसराइं-दीनतापूर्ण वचनों से। विलवति-विलाप करती है। गोयमा !-हे गौतम ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। अजू देवी-अंजूदेवी। पुरा जाव विहरति-पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का फल भोग रही है। . मूलार्थ-किसी अन्य समय अंजूश्री के शरीर में योनिशूल नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देख विजयनरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा कि तुम लोग वर्धमानपुर में जाकर वहां के त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य रास्तों पर यह उद्घोषणा कर दो कि देवी अंजूश्री के योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है, अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस को उपशांत कर देगा तो उसे महाराज विजयमित्र पुष्कल धन प्रदान करेंगे। तदनन्तर राजाज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि विजयमित्र के पास आते हैं और वहां से देवी अंजूश्री के पास उपस्थित हो कर औत्पातिकी आदि बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त करते हुए विविध प्रकार के आनुभविक प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशुल को उपशान्त करने का यत्न करते हैं, परन्तु उन के प्रयोगों से देवी अंजूश्री का योनिशूल उपशान्त नहीं हो पाया। तदनन्तर जब वे अनुभवी वैद्य अंजूश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गए, तब वे खिन्न, श्रान्त और हतोत्साह हो कर जिधर से आए थे उधर को ही चले गए। तत्पश्चात् देवी अंजूश्री उस शूलजन्य वेदना से दुःखी हुई सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांसरहित होकर कष्ट, करुणाजनक और दीनतापूर्ण शब्दों में 764 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध