________________ रानी ने सिंह के दर्शन किए। इसी विभिन्नता को दिखाने के लिए मूल में "-सीहं . सुमिणे-" ऐसा उल्लेख कर दिया है। इस के अतिरिक्त अकालमेघ के दोहद से श्रेणिक के पुत्र का मेघकुमार नाम रखना और अदीनशत्रु की रानी धारिणी को वैसे दोहद का उत्पन्न न होना और सुबाहुकुमार यह नाम रखना, दोनों की नामगतविभिन्नता को सूचन कर रहा है। ___"-सुबाहुकुमारे जाव अलंभोगसमत्थं-" यहां उल्लिखित जाव-यावत्-पद से"बावत्तरीकलापंडिए, 'नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीयरइगन्धव्वनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था, तए णं तस्स सुबाहुकुमारस्स अम्मापिअरो सुबाहुकुमारं बावत्तरिकलापण्डियं नवंगसुत्तपडिबोहियं अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारयं गीयरइंगंधव्वनट्टकुसलं हयजोहिं गयजोहिं रहजोहिं बाहुजोहिं बाहुप्पमहिं"-इन पदों का तथा-अलंभोगसमत्थं-यहां के बिन्दु से-साहसियं वियालचारि जायं-इन पदों . का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है सुबाहुकुमार 72 कलाओं में प्रवीण हो गया। यौवन ने उस के सोए हुए-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन-ये नव अंग जागृत कर दिए थे, अर्थात् बाल्यावस्था में ये नव अंग अव्यक्त चेतना-ज्ञान वाले होते हैं, जब कि यौवनकाल में यही नव अंग व्यक्त चेतना वाले हो जाते हैं, तब सुबाहुकुमार के नव अंग प्रबोनित हो रहे थे। यह कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वह पूर्ण-रूपेण युवावस्था को प्राप्त कर चुका था। वह अठारह देशों की भाषाओं में प्रवीण हो गया था। उस को गीत-संगीत में प्रेम था, तथा गाने और नृत्य करने में भी वह कुशल-निपुण हो गया था। वह घोड़े, हाथी और रथ द्वारा युद्ध करने वाला हो गया था। वह बाहुयुद्ध तथा भुजाओं को मर्दन करने वाला एवं भोगों के परिभोग में भी समर्थ हो गया था। वह साहसिक-साहस रखने वाला और अकाल अर्थात् आधी रातं आदि समय में विचरण करने की शक्ति रखने में भी समर्थ हो चुका था। तदनन्तर सुबाहुकुमार के मातापिता उस को 72 कलाओं में प्रवीण आदि, (जाणेति जाणित्ता-जानते हैं तथा जानकर) यह अर्थ निष्पन्न होता है। -अब्भुग्गय०-तथा-भवणं०-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ की सूचना पीछे प्रथम श्रुतस्कंध के नवमाध्ययन में कर दी गई है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां महाराज महासेन के पुत्र श्री सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महाराज अदीनशत्रु के सुपुत्र श्री 1. नवांगानि-श्रोत्र २चत्रुरघ्राणश्रसनाश्त्वक् मनोरलक्षणानि सुप्तानि सन्ति प्रबोधितानि यौवनेन . यस्य स तथा। (वृत्तिकारः) 808 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध