________________ है और वह उपलब्ध हुए बहुमूल्य अवसर को यों ही खो डालता है। इस के विपरीत सदाचार के सौरभ से सुरभित मानव अपने जीवन में अधिकाधिक सदाचारमूलक प्रवृत्तियों का पोषण कर के अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल और अत्युज्वल बना डालता है। पांच सौ कन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह करने का यह अर्थ है कि लोगों के समय, शक्ति और स्वास्थ्य आदि का बचाव किया जाए। एक-एक कन्या का अलग-अलग समय में विवाह किया जाता तो न जाने कितना समय लगता, कितनी शक्ति व्यय होती एवं लगातार गरिष्ट भोजनादि के सेवन से कितनों का स्वास्थ्य बिगड़ता। इस के अतिरिक्त राज्य के प्रबन्ध में भी अमर्यादित प्रतिबन्ध के उपस्थित होने की संभावना रहती। इसी विचार से महाराज अदीनशत्रु ने एक ही दिन में और एक ही मण्डप में विवाह का आयोजन करना उचित समझा, जो कि उन की दीर्घदर्शिता का परिचायक है। इस के अतिरिक्त इस से समय का उपयोग कितनी निपुणता तथा बुद्धिमत्ता से करना चाहिए इस बात की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है। एक मेधावी व्यक्ति के समय का मूल्य कितना होता है तथा उस का उपयोग किस रीति से करना चाहिए, ये बातें प्रस्तुत वर्णन से जान लेनी चाहिएं। ___-रिद्ध- यहां के बिन्दु से-त्थिमियसमिद्धे पमुइयजणजाणवए आइण्णजणमणुस्से हलसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमे कुक्कुडसंडेयगामपउरे उच्छुजवसालिकलिए गोमहिसगवेलगप्पभूए आयारवन्तचेइयजुवइविविहसन्निविट्ठबहुले उक्कोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिए खेमे णिरुवद्दवे सुभिक्खे वीसत्थसुहावासे अणेगकोडिकुडुंबियाइण्णणिव्वुयसुहे णडणट्टगजल्लमल्लमुट्ठियवेलंबयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायराणुचरिए आरामुजाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणोववेए नंदणवणसन्निभप्पगासे उव्विद्धविउलगंभीरखायफलिहे चक्कगयमुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्पवेसे धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ते कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणे अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गे छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीले विवणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णाणिव्वुयसुहे सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावणविविहवत्थुपरिमण्डिए सुरम्मे नरवइपविइण्णमहिवइपहे अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गे विमउलणवणलिणिसोभियजले पण्डुरवरभवणसण्णिमहिए उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है वह नगर ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र और परचक्र के भय 'द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [801