________________ का त्याग उतना ही आवश्यक है जितना कि सुख के साधनों को अपनाना / दुःख के साधनों का त्याग तभी संभव है जब कि दुःख जनक साधनों का विशिष्ट बोध हो। कष्ट के उत्पादक साधनों के भान बिना उन का त्याग भी संभव नहीं हो सकता, इसी प्रकार सुखमूलक साधनों को अपनाने के लिए उनका ज्ञान भी आवश्यक है। ___ मनुष्य से ले कर छोटे से छोटे कीट, पतंग तक संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की अभिलाषा करता है। सभी जीवों की सभी चेष्टाओं का यदि सूक्ष्मरूप से अवलोकन किया जाए तो प्रतीत होगा कि उन की प्रत्येक चेष्टा सुख की अभिलाषा से ओतप्रोत है। तात्पर्य यह है कि इस विशाल विश्व के आंगन में जीवों की जितनी भी लीलाएं हैं वे सब सुखमूलक हैं। सुख की उपलब्धि के लिए जिस मार्ग के अनुसरण का उपदेश महापुरुषों ने दिया है, उस का दिग्दर्शन अनेक रूपों में कराया गया है। श्री विपाक सूत्र में इसी दृष्टि से दुःखविपाक और सुखविपाक ऐसे दो विभाग करके दुःख और सुख के साधनों का एक विशिष्ट पद्धति के द्वारा निर्देश करने का स्तुत्य प्रयास किया गया है।दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःख और उसके साधनों का निर्देश करके साधक व्यक्ति को उन के त्याग की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया गया है। इसी भान्ति उस के दूसरे विभाग-सुखविपाक में सुख और उसके साधनों का निर्देश करते हुए साधकों को उन के अपनाने की प्रेरणा की गई है। दोनों विभागों के अनुशीलन से हेयोपादेयरूप में साधक को अपने लिए मार्ग निश्चित करने की पूरी-पूरी सुविधा प्राप्त हो सकती है। पूर्ववर्णित दुःखविपाक से साधक को हेय का ज्ञान होता है और आगे वर्णन किये जाने वाले सुखविपाक से वह उपादेय वस्तु का बोध प्राप्त कर सकता है। पूर्व की भान्ति राजगृह नगर के गुणशील चैत्य-उद्यान में अपने विनीत शिष्यवर्ग के साथ पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी से उन के विनयशील अन्तेवासी-शिष्य आर्य जम्बू स्वामी उन के मुखारविन्द से विपाकश्रुत के दुःखविपाक के दश अध्ययनों का श्रवण करने के अनन्तर प्रतियोगी अर्थात् प्रतिपक्षी रूप से प्राप्त होने वाले उस सुखविपाकमूलक अध्ययनों के श्रवण की जिज्ञासा से उनके चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना रूप में इस प्रकार बोले भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के अन्तर्गत दुःखविपाक के दश अध्ययनों का जो विषय वर्णन किया है, उस का तो श्रवण मैंने आप श्री के श्रीमुख से कर लिया है, परन्तु विपाकश्रुतान्तर्गत सुखविपाक के विषय में भगवान् ने जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह मैंने नहीं सुना, अत: आप श्री यदि उसे भी सुनाने की कृपा करें तो अनुचर पर बहुत अनुग्रह होगा। तब अपने शिष्य की बढ़ी हुई जिज्ञासा को देख आर्य सुधर्मा स्वामी ने फ़रमाया किजम्बू! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के सुखविपाक में दश अध्ययन द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [787