________________ पुनः-बार-बार / पूयकवले य-पूय-पीव के कवलों -ग्रासों का। रुहिरकवले य-रुधिर के कवलों का। किमिकवले य-कृमिकवलों का।वममाणं-वमन करता हुआ।कट्ठाई-दु:खद / कलुणाई-करुणोत्पादक। वीसराइं-विस्वर-दीनता वाले वचन / कूयमाणं-बोलता हुआ। मच्छियाचडगरपहगरेणं-मक्षिकाओं के विस्तृत समूह से-मक्षिकाओं के आधिक्य से। अण्णिजमाणमग्गं-अन्वीयमानमार्ग अर्थात् उस के पीछे और आगे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे। फुट्टहडाहडसीसं-जिस के सिर के केश नितान्त बिखरे हुए थे। दंडिखंडवसणं-जो फटे-पुराने वस्त्रों को धारण किए हुए था।खंडमल्लयखंडघडगहत्थगयंभिक्षापात्र तथा जलपात्र जिस के हाथ में थे। गेहे २-घर-घर में। देहंबलियाए-भिक्षावृत्ति से। वित्तिंआजीविका। कप्पेमाणं-चला रहा था, उस पुरुष को। पासति-देखते हैं। तदा-तब। भगवं-भगवान्। गोयमे-गौतम स्वामी। उच्चणीयमज्झिमकुलाई-ऊँच (धनी), नीच (निर्धन) तथा मध्यम (न ऊँच तथा न नीच अर्थात् सामान्य) , घरों में। जाव-यावत् / अडति-भ्रमण करते हैं। अहापजत्तं-यथापर्याप्त अर्थात् यथेष्ट, आहार। गेण्हति 2 ता-ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके। पाडलिक-पाटलिषंड-नगर से। पडिनि०निकलते हैं, निकल कर। जेणेव-जहां। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आते हैं आकर। भत्तपाणं-भक्तपान की।आलोएति-आलोचना करते हैं, तथा। भत्तपाणं-भक्तपान को। पडिदंसेति-दिखलाते हैं, दिखाकर / समणेणं-श्रमण भगवान् से। अब्भणुण्णाते समाणे-आज्ञा को प्राप्त किए हुए। अप्पाणेणं-आत्मा से अर्थात् स्वयं। बिलमिव पन्नगभूते-बिल में जाते हुए पन्नक-सर्प की भान्तिः। आहारमाहारेइ-आहार का ग्रहण करते हैं, तथा। संजमेणं-संयम, और। तवसा-तप से। अप्पाणं-आत्मा को। भावेमाणे-भावित-वासित करते हुए। विहरति-विचरते हैं। .. मूलार्थ-उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी जी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए पाटलिषण्ड नगर में जाते हैं, उस पाटलिषण्ड नगर में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहां एक पुरुष को देखते हैं जिस की दशा का वर्णन निम्नोक्त है... वह पुरुष कण्डू रोग वाला, कुष्ठ रोग वाला, जलोदर रोग वाला, भगंदर रोग वाला, अर्श-बवासीर का रोगी, उस को कास और श्वास तथा शोथ का रोग भी हो रहा था, उस का मुख सूजा हुआ था, हाथ और पैर फूले हुए थे, हाथ और पैर की अंगुलियां सड़ी हुईं थीं, नाक और कान भी गले हुए थे, रसिका और पीव से थिवथिव शब्द कर रहा था, कृमियों से उत्तुद्यमान-अत्यन्त पीड़ित तथा गिरते हुए पीव और रुधिर वाले व्रणमुखों से युक्त था, उस के कान और नाक क्लेदतन्तुओं से गल चुके थे, बार-बार पूयकवल, रुधिरकवल तथा कृमिकवल का वमन कर रहा था, और जो कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था, उस के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले आ रहे थे, सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, टांकियों वाले वस्त्र उसने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [557