________________ नहीं। कहीं पर-सयं रजसुक्का-ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है-यदि वह स्वयं राज्यशुल्का-पट्टरानी होने की भावना अभिव्यक्त करे तो भी ले लेनी योग्य है। यदि सा स्वयं राज्यशुल्का पट्टराज्ञी भवितुमिच्छति तथापि तत्स्वीकृत्य तां वृणीध्वमिति भावः। जिस का गतिजनित श्रम दूर हो गया है वह आस्वस्थ तथा जिस का हृदय संक्षोभव्यग्रता (घबराहट) से रहित है उसे विस्वस्थ कहते हैं। जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो-इन का शाब्दिक अर्थविभेद टीकाकार के शब्दों में निम्नलिखित है -जुत्तं ति-संगतम्। पत्तं व त्ति-पात्रं वा, अवसरप्राप्तं वा। सलाहणिज्जं त्ति श्लाघ्यमिदम्। सरिसो व त्ति-उचितः संयोगो वधुवरयोरिति। अर्थात् युक्त संगत को कहते हैं। पात्र योग्य अथवा अवसरप्राप्त का नाम है अर्थात् ऐसे सम्बन्ध का यह समय हैइस अर्थ का बोधक पात्र शब्द है। श्लाघनीय श्लाघा-प्रशंसा के योग्य को कहते हैं। सदृश उचित और संयोग वधु वर के संबंध का नाम है। तात्पर्य यह है कि वर कन्या के संयोग में इन सब बातों के देखने की आवश्यकता होती है। ___-हट्ट करयल जाव एयमटुं-ग्रहां के प्रथम बिन्दु से-तुटूचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ तीसरे अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में कौटुम्बिक पुरुषों के। लिंगगत तथा वचनगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष अर्थगत कोई भेद नहीं है। तथा-जावयावत्-पद से विवक्षित पाठ उसी अध्याय में लिखा जा चुका है। -हाया जाव सुद्धप्पवेसा-यहां के जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एकवचनांत हैं जब कि प्रस्तुत में बहुवचनान्त। __-हट्ठतु आसणाओ-यहां का बिन्दु पूर्वोक्त-चित्तमाणंदिए-से लेकरसमुस्ससियरोमकूवे- यहां तक के पदों का बोधक है। अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में ये पद एकवचनान्त अपेक्षित हैं। ____ प्रस्तुत सूत्र में वैश्रमणदत्त नरेश के द्वारा परमसुन्दरी दत्तपुत्री देवदत्ता की याचना तथा दत्त की उस के लिए स्वीकृति देना आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता से सम्बन्ध रखने वाले अग्रिम वृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल-तते णं से दत्ते गाहावती अन्नया कयाइ सोहणंसि तिहिकरण 720 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध