________________ टीका-विपाकसूत्र के नवम अध्ययन में वर्णित दत्त सेठ की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता के वृत्तान्त का आद्योपान्त, कर्मगत विचित्रता से गर्भित जीवनवृत्तान्त का चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में विराजमान आर्य सुधर्मा स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री जम्बू स्वामी ध्यानपूर्वक मनन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में उपस्थित हो कर विनयपूर्वक निवेदन करने लगे-भगवन् ! आप के परम अनुग्रह से मैंने विपाकश्रुत के दुःखविपाक के नवम अध्ययन के अर्थ का श्रवण किया और उस का चिन्तन तथा मनन भी कर लिया है। अब मेरी इच्छा उस के दसवें अध्ययन के अर्थश्रवण की हो रही है, अत: आप श्री उस को भी सुनाने की कृपा करें। सर्वज्ञप्रणीत निर्ग्रन्थप्रवचन के महान् जिज्ञासु आर्य जम्बू स्वामी की उक्त विनीत प्रार्थना को सुन कर परमदयालु श्री सुधर्मा स्वामी बोले-जम्बू! पुराने समय की बात है, जब कि वर्द्धमानपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था, उस के बाहर ईशान कोण में अवस्थित विजयवर्द्धमान नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस में माणिभद्र नाम के यक्ष का एक सुप्रसिद्ध स्थान था, जिस के कारण उद्यान में बड़ी चहल पहल रहती थी। नगर के शासक विजयमित्र नाम के नरेश थे। इस के अतिरिक्त उस नगर में धनदेव नाम का एक सुप्रसिद्ध धनी, मानी सार्थवाह रहता था, उसकी प्रियंगू नाम की भार्या और अंजू नाम की एक अत्यंत रूपवती कन्या थी। . उस समय विजयवर्धमान उद्यान में चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुआ, उन की धर्मदेशना सुन कर जनता के चले जाने के बाद उन के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा ले कर जब भिक्षा के लिए नगर में जाते हैं तब उन्होंने महाराज विजयमित्र के महल की अशोकवाटिका के समीप से जाते हुए वहां एक स्त्री को देखा। उस की दशा बड़ी दयाजनक थी। शरीर सूखा हुआ, भूख के कारण शरीरगत रुधिर और मांस भी शरीर में दिखाई नहीं देता था, केवल चमड़े में लिपटा हुआ अस्थिपंजर ही नज़र आता था, इस के अतिरिक्त उस का शब्द भी बड़ा करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण था, उसके शरीर पर नीली साड़ी थी। गौतम स्वामी इस दृश्य से बड़े प्रभावित हुए, उन्होंने वापिस आकर भगवान् से सारा वृत्तान्त कहा और उस स्त्री के पूर्वभव की जिज्ञासा की। यही सूत्रगत वर्णन का संक्षिप्त सार है। उक्खेव-उत्क्षेप प्रस्तावना का नाम है। विपाक सूत्र के दुःखविपाक के दशम अध्ययन का प्रस्तावनासम्बन्धी सूत्रपाठ निम्नोक्त है जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्स अझयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं के अटे पण्णत्ते ?-" अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [753