________________ तदनन्तर प्रभु को वन्दना नमस्कार किया और निवेदन किया-प्रभो! आप से आज्ञा प्राप्त कर के मैं वर्धमानुपर नगर में गया, वहाँ उच्च आदि कुलों में भ्रमण करते हुए मैंने विजयमित्र नरेश की अशोकवाटिका के निकट बड़ी दयनीय अवस्था को प्राप्त एक स्त्री को देखा, उसे देख कर मेरे मन में "- अहह ! यह स्त्री पूर्वकृत पुरातनादि कर्मों का फल पा रही है। यह ठीक है कि मैंने नरक नहीं देखे किन्तु यह स्त्री तो प्रत्यक्ष नरकतुल्य वेदना को भोग रही है-" ऐसे विचार उत्पन्न हुए, इन भावों का बोधक तहेव-तथैव पद है, और इन्हीं भावों के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है, तथा जाव-यावत् पद से अभिमत पद निम्नोक्त पाठ का परिचायक है। __-त्ति कट्ट वद्धमाणपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गेहति 2 त्ता वद्धमाणपुरं णगरं मझमझेणं निग्गच्छइ 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाणं पडिदंसेति। समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे वद्धमाणपुरेणगरे उच्चनीयमज्झिमकुले घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पासामि एग इत्थियं सुक्खं..... वीसराई कूवमाणिं पासित्ता इमे अज्झित्थिते 5 समुप्पजित्था-अहो णं एसा इत्थी पुरा पुराणाणां दुच्चिण्णाणंदुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणी विहरति। न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु एसा इत्थी निरयपडिरूवियं वेयणं वेयइ। इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। तथा वागरणं-का अर्थ है-गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का प्रतिपादन। .. श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया, अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उसका वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं 2 इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे इन्दपुरे णामं णगरे होत्था। तत्थ णं इंददत्ते राया पुढवीसिरी णामं गणिया। वण्णओ। तते णं सा पुढवीसिरी गणिया इंदपुरे णगरे बहवे राईसर० जाव प्पभियओ चुण्णप्पओगेहि य जाव अभिओगित्ता उरालाई माणुसभोगभोगाई भुंजमाणी विहरति। तते णं सा पुढवीसिरी गणिया एयकम्मा 4 सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता पणतीसं वाससताइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [755