________________ समजिणित्ता-उपार्जन कर। पणतीसं वाससताई-३५ सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु को। पालइत्तापाल कर -भोग कर। कालमासे-काल-मास में अर्थात् मृत्यु का समय आ जाने पर। कालं किच्चाकाल करके / छट्ठीए-छठी। पुढवीए-पृथ्वी-नरक में। उक्कोसेणं-जिन की उत्कृष्ट स्थिति 22 सागरोपम “की है, ऐसे नारकियों में। णेरइयत्ताए-नारकी रूप से। उववन्ना-उत्पन्न हुई। सा णं-वह। तओ-वहां से। उव्वट्टित्ता-निकल कर। इहेव-इसी। वद्धमाणे-वर्धमान। णगरे-नगर में। धणदेवस्स-धनदेव / सत्थवाहस्स-सार्थवाह की। पियंगूभारियाए-प्रियंगू नामक भार्या की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। दारियत्ताए-कन्या रूप से। उववन्ना-उत्पन्न हुई। तते णं-तदनन्तर ।सा-उस।पियंगू भारिया-प्रियंगूभार्या के। णवण्हं-नौ। मासाणं-मास। बहुपडिपुण्णाणं-लगभग परिपूर्ण होने पर। दारियं-दारिका-बालिका का। पयाया-जन्म हुआ, उस का। नाम-नाम / अंजूसिरी-अञ्जूश्री रक्खा गया। सेसं-शेष। जहा-जैसे। देवदत्ताए-देवदत्ता का वर्णन किया गया है, वैसे ही जानना। तते णं-तदनन्तर। से-वह। विजएविजयमित्र / राया-राजा। आसवा०-अश्ववाहनिका-अश्वक्रीड़ा के लिए गमन करता हुआ। जहेव-जैसे। वेसमणदत्ते-वैश्रमणदत्त / तहेव-उसी भान्ति / अंजु-अंजूश्री को। पासति-देखता है। णवरं-उस में इतनी विशेषता है कि वह उसे। अप्पणो-अपने / अट्ठाए-लिए। वरेति-मांगता है। जहा-जिस प्रकार। तेतलीतेतलि। जाव-यावत् / अंजूए-अंजूश्री नामक। दारियाए-बालिका के / सद्धिं-साथ, (महलों के)। उप्पिंऊपर। जाव-यावत्। विहरति-विहरण करने लगा। मूलार्थ-गौतम! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था। वहाँ इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य किया करता था।नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिकावेश्या रहती थी। उस का वर्णन पूर्ववर्णित कामध्वजा वेश्या की भान्ति जान लेना चाहिए।इन्द्रपुर नगर में वह गणिका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि लोगों को चूर्णादि के प्रयोगों से वश में करके मनुष्यसम्बन्धी उदार-मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई आनन्दपूर्वक समय बिता रही थी।तदनन्तर एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य, तथा एतत्समाचार वह पृथिवीश्री वेश्या अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 35 सौ वर्ष की परम आयु भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक के 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकियों के मध्य में नारकीय रूप से उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर वह इसी वर्धमानपुर नगर के धनदेव नामक सार्थवाह की प्रियंगू भार्या के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् कन्यारूप से गर्भ में आई। तदनन्तर उस प्रियंगू भार्या ने नव मास पूरे होने पर कन्या को जन्म दिया और उस का अंजूश्री नाम रक्खा। उस का शेष वर्णन देवदत्ता की तरह जानना। तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए वैश्रमण दत्त की भान्ति ही अंजूश्री को देखते हैं और तेतलि की तरह उसे अपने लिए मांगते हैं, यावत् वे अजूश्री के साथ उन्नत प्रासाद में प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [757