________________ संवाहणाए-" ऐसा पाठ है, परन्तु यह पाठ ठीक प्रतीत नहीं होता। जब सूत्रकार स्वयं चार प्रकार की संवाहना कहते हैं तो फिर पांच प्रकार (अस्थि, मांस, त्वचा, चर्म, रोम) की संवाहना कैसे संभव हो सकती है? दूसरी बात-त्वचा से ही चर्म का ग्रहण हो सकता है। अतः पाठ में चम्म-चर्म का अधिक अथच अनावश्यक सन्निवेश किया गया है। तथा "-गंधवट्टएणं-गंधवर्तकेन-" इस का अर्थ टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने "गन्धचूर्णेन" अर्थात् गंधचूर्ण किया हैं, जिस का तात्पर्य सुगन्धित चूर्ण अर्थात् उबटना-बटना -असणं ४-यहां के अंक से अभिमत पद तृतीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं। तथा-हाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए-यहां पठित प्रथम -जावयावत्-पद से -कयबलि-कम्माए कयकोउयमंगल-इस पाठ का तथा द्वितीय जावयावत्-पद से -सुद्धप्पवेसाई मंगलाई पवराई वत्थाई परिहियाए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीराए भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगयाए असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणाए विसाएमाणाए परिभुंजेमाणाए परिभाएमाणाए-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। प्रस्तुत सूत्र में राजकुमार पुष्यनन्दी का कुमारी देवदत्ता के साथ विवाह हो जाने के बाद मानवोचित सांसारिक मनोज्ञ विषयों का उपभोग करना, महाराज वैश्रमण की मृत्यु एवं रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी का मातृभक्ति करना आदि विषयों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार देवदत्ता के हृदय में होने वाली विचारधारा का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए 5 समुप्पजित्थाएवं खलु पूसणंदी राया सिरीए देवीए माइभत्ते समाणे जाव विहरति। तं एएणं वक्खेवेणं नो संचाएमि अहं पूसणंदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरित्तए।तं सेयं खलु ममं सिरिं देविं अग्गिप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवेत्ता पूसणंदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणीए विहरित्तए, एवं संपेहेति 2 त्ता सिरीए देवीए अन्तराणि य 3 पडिजागरमाणी 2 विहरति। तते णं सा सिरी देवी अन्नया कयाति 'मजाविया विरहियसयणिजंसि सुहप्पसुत्ता 1. टीकाकार अभयदेवसूरि मजाविया के स्थान पर मज्जावीया ऐसा पाठ मान कर उस का अर्थ पीतमद्या-अर्थात् जिस ने शराब पी रखी है-ऐसा करते हैं। 732 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध