________________ जो लोग किसी पुत्रादि को उपलब्ध करने के उद्देश्य से देवों की पूजा करते हैं, और पूर्वोपार्जित किसी पुण्य कर्म के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति कर लेने पर भक्तिरसातिरेक से उसे देवदत्त ही मान लेते हैं, अर्थात् पुत्रादि की प्राप्ति में देव को उपादान कारण मान बैठते हैं, वे नितान्त भूल करते हैं, क्योंकि यदि पूर्वोपार्जित कर्म विद्यमान हैं तो उस में देव सहायक बन सकता है, इस के विपरीत यदि पूर्व कर्म सहयोगी नहीं हैं तो एक बार नहीं, अनेकों बार देवपूजा की जाए या देव की एक नहीं लाखों मनौतिएं मान ली जाएं तो भी देव कुछ नहीं कर सकता। सारांश यह है कि किसी भी कार्य की सिद्धि में देव निमित्त कारण भले ही हो जाए, परन्तु वह उपादान कारण तो त्रिकाल में भी नहीं बन सकता। अतः देव को उपादान कारण समझने का विश्वास शास्त्रसम्मत न होने से हेय है एवं त्याज्य है। . प्रश्न-किसी भी कार्य की सिद्धि में देव उपादान कारण नहीं बन सकता, यह ठीक है, परन्तु वह कर्मफल के प्रदान में निमित्त कारण तो बन सकता है, उस में कोई सैद्धान्तिक. . बाधा नहीं आती, फिर उस के पूजन का निषेध क्यों देखा जाता है ? ___ उत्तर-संसार में दो प्रकार की प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। प्रथम संसारमूलक और दूसरी मोक्षमूलक। संसारमूलक प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की पोषिका होती है, जब कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति उस के शोषण का और आत्मा को उस के वास्तविकरूप में लाने अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने का कारण बनती है। तात्पर्य यह है कि मोक्षमूलक प्रवृत्ति मात्र आध्यात्मिकता की प्रगति का कारण बनती है जब कि संसारमूलक प्रवृत्ति जन्ममरण रूप संसार के संवर्धन का। ___ जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए सर्वतोमुखी प्रेरणा करता है। आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य परमसाध्य निर्वाणपदं को उपलब्ध करना होता है। सांसारिक जीवन उस के लिए बंधनरूप होता है, इसीलिए वह उसे अपनी प्रगति में बाधक समझता है। जन्म मरण के दु:खों की पोषिका कोई भी प्रवृत्ति उस के लिए हेय एवं त्याज्य होती है। सारांश यह है कि आध्यात्मिकता के पथ का पथिक साधक व्यक्ति आत्मा को परमात्मा बनाने में सहायक अर्थात् मोक्षमूलक प्रवृत्तियों को ही अपनाता है, और सांसारिकता की पोषक सामग्री से उसे कोई लगाव नहीं होता, और इसीलिए उससे वह दूर रहता है। देवपूजा सांसारिकता का पोषण करती है या करने में सहायक होती है, इसीलिए जैन धर्म में देवपूजा का निषेध पाया जाता है। देवपूजा सांसारिक जीवन का पोषण कैसे करती है ? इस के उत्तर में इतना ही कहना है कि देवपूजा करने वाला यही समझ कर पूजा करता है कि इस से मैं युद्ध में शत्रु को परास्त 610 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध