________________ पारणे के निमित्त नगर में भिक्षा के लिए जाने की आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मिल जाने पर गौतम स्वामी ने शौरिकपुर नगर की ओर प्रस्थान किया। वहां नगर में पहुँच साधुवृत्ति के अनुसार आहार की गवेषणा करते हुए धनिक और निर्धन आदि सभी घरों से यथेष्ट भिक्षा लेकर शौरिकपुर नगर से निकले और आते हुए समीपवर्ती मत्स्यबंधपाटक-मच्छीमारों के मुहल्ले में उन्होंने एक पुरुष को देखा। . उस मनुष्य के चारों ओर मनुष्यों का जमघट लगा हुआ था। वह मनुष्य शरीर से बिल्कुल सूखा हुआ, बुभुक्षित तथा भूखा होने के कारण उस के शरीर पर मांस नहीं रहा था, केवल अस्थिपंजर सा दिखाई देता था, हिलने चलने से उस के हाड किटिकिटिका शब्द करते, उस के शरीर पर नीले रंग की एक धोती थी, गले में मच्छी का कांटा लग जाने से वह अत्यन्त कठिनाई से बोलता, उस का स्वर बड़ा ही करुणाजनक तथा नितान्त दीनतापूर्ण था। इस से भी अधिक उसकी दयनीय दशा यह थी कि वह मुख में से पूय, रुधिर और कृमियों के कवलोंकुल्लों का वमन कर रहा था। उसे देख कर भगवान् गौतम सोचने लगे-ओह ! कितनी भयावह अवस्था है इस व्यक्ति की! न मालूम इसने पूर्वभव में ऐसे कौन से दुष्कर्म किये हैं, जिन के विपाकस्वरूप यह इस प्रकार की नरकसमान यातना को भोग रहा है ? अस्तु, इस के विषय में भगवान् से चल कर पूछेगे-इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होते हैं। वहां आहार को दिखा तथा आलोचना आदि से निवृत्त हो कर वे भगवान् से इस प्रकार बोले____ प्रभो ! आप श्री की आज्ञानुसार मैं नगर में पहुँचा, वहां गोचरी के निमित्त भ्रमण करते हुए मैंने एक व्यक्ति को देखा इत्यादि। उस दृष्ट व्यक्ति की सारी अवस्था को गौतम स्वामी ने कह सुनाया। तदनन्तर वे फिर बोले-भगवन् ! वह दुःखी जीव कौन है ? उसने पूर्वभव में ऐसे कौन से अशुभ कर्म किए हैं, जिन का कि वह यहां पर इस प्रकार का फल भोग रहा है? गौतम स्वामी की उक्त जिज्ञासा का ध्यान रखते हुए उस के उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी ने जो फरमाया उस का वर्णन अग्रिम सूत्रों में किया गया है। -सुक्खं, भुक्खं-इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त है १-सुक्खं-शुष्कम्-अर्थात् रुधिर के कम हो जाने से जो सूख रहा हो उसे शुष्क कहते हैं। २-भुक्खं-बुभुक्षितम्-अर्थात् भुक्ख यह देश्य देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो बुभुक्षित इस अर्थ का परिचायक है। क्षुधा-भूख से पीड़ित व्यक्ति बुभुक्षित कहलाता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [625