________________ टीका-चपलता करने वाला एक वानर चाहे अपनी उमंग-खुशी में लकड़ी के चीरे हुए फट्टों में लगाई गई कीली को बैंच लेता है, परन्तु उन्हीं फट्टों के बीच में जिस समय उस की पूंछ या अण्डकोष भिंच जाते हैं तो वह चीखें मारता और अपनी रक्षा का भरसक यत्न करता है, परन्तु अब सिवाय मरने के उस के लिए कोई चारा नहीं रहता। ठीक इसी तरह पापकर्मों के आचरण में आनन्द का अनुभव करने वाले व्यक्ति चाहे कितना भी प्रसन्न हो लें परन्तु कर्मफल के भोगते समय वे उसी तरह चिल्लाते हैं, जिस तरह चपलता के कारण कीली को निकालने वाला मूर्ख वानर अण्डकोषों के पिस जाने पर चिल्लाता है। सारांश यह है कि उपार्जित किया कर्म अपना फल अवश्य देता है चाहे करने वाला कहीं भी चला जाय। श्रीद रसोइया राजा को प्रसन्न करने के लिए मच्छियों के शिकार करने और उन के मांसों को विविध प्रकार से तैयार करने तथा अपनी जिह्वा को आस्वादित करने के लिए जिस भयानक जीववध का अनुष्ठान किया करता था, उसी के फलस्वरूप उसे छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा। वहां पर उसे अपने कर्मानुरूप नरकजन्य भीषणातिभीषण वेदनाएं भोगनी पड़ी। भगवान् महावीर स्वामी कहने लगे कि हे गौतम ! जिस समय श्रीद रसोइया छठी नरक में पड़ा हुआ स्वकृत अशुभ कर्मों के फल को भोग कर वहां की भवस्थिति को पूरा करने वाला ही था, उस समय इसी शौरिकपुर नगर के मत्स्यबन्धक-मच्छीमारों के मुहल्ले में रहने वाले समुद्रदत्त नामक मच्छीमार की भार्या जातनिद्रुता-मृतवत्सा थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। अतएव वह अपनी गोद को खाली देख कर बड़ी दुःखी हो रही थी। उस की दशा उस किसान जैसी थी, जिस की खेती-फसल पक जाने पर ओलों की वर्षा से सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। सन्ततिविरह से परम दुःखी हुई समुद्रदत्ता ने भी गंगादत्ता की भान्ति रात्रि में परिवारसम्बन्धी विचारणा के अनन्तर अपने पति से आज्ञा ले कर शौरिक नामक यक्ष की सेवा में उपस्थित हो कर पुत्रप्राप्ति के लिए याचना की, और उसकी मन्नत मानी। तदनन्तर समुद्रदत्ता को भी यथासमय गर्भ रहने पर गंगादत्ता के समान दोहद उत्पन्न हुआ और उस की, गंगादत्ता के दोहद की तरह ही पूर्ति की गई। लगभग सवा नौ मास पूरे होने पर 1. अव्यापारेषु व्यापारं, यो नरः कर्तुमिच्छति। स एव निधनं याति, कीलोत्पाटीव वानरः॥ (पंचतंत्र) 2. गंगादत्ता का सारा जीवनवृत्तान्त दु:खविपाक के सप्तम अध्ययन में आ चुका है, वह भी जातनिद्रुता थी, उसने भी रात्रि में अपने परिवार के सम्बन्ध में चिन्तन किया था, जिस में उसने पति से आज्ञा लेकर उम्बरदत्त यक्ष के आराधन का निश्चय किया था और तदनुसार उसने पति की आज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानी तथा गर्भस्थिति होने पर उत्पन्न दोहद की पूर्ति की। सारांश यह है कि जिस प्रकार गंगादत्ता ने अर्द्धरात्रि में कटम्बसम्बन्धी चिन्तन किया था, तथा उस ने उम्बरदत्त यक्ष का आराधन किया था उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने भी रात्रि में परिवारसम्बन्धी चिन्तन के अनन्तर पति से आज्ञा ले कर शौरिक यक्ष की मनौती मानने का संकल्प किया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [649