________________ उतारने का उद्योग किया गया, एवं यन्त्रों के द्वारा निकालने का यत्न किया गया, परन्तु वे सब के सब अनुभवी वैद्य, मेधावी चिकित्सक आदि उस कांटे को बाहर निकालने या भीतर पहुँचाने में असफल ही रहे, तब वे हताश हो शौरिकदत्त को जवाब दे कर वहां से अपने-अपने स्थान को प्रस्थान कर गए, और वैद्यादि के "हम इस कांटे को निकालने में सर्वथा असमर्थ हैं" इन निराशाजनक उत्तर को सुन कर शौरिकदत्त को बड़ा भारी कष्ट हुआ और उसी कष्ट से सूख कर वह अस्थिपंजर मात्र रह गया। उस कांटे के विषैले प्रभाव से उस का शरीर विकृत हो गया, उस के मुख से पूय और रुधिर प्रवाहित होने लगा। इस वेदना से उस का शरीर मात्र हड्डियों का ढांचा ही रह गया। प्रतिक्षण प्रतिपल वह वेदना से पीड़ित होता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। भगवान् महावीर स्वामी फरमाने लगे कि हे गौतम ! यह वही शौरिकदत्त मच्छीमार है, जिस को तुमने शौरिकपुर नगर में मनुष्यों के जमघट में देखा है। ये सब कुछ उसके कर्मों का ही प्रत्यक्ष फल है। विचारशील मानव को उस के जीवन से उपयुक्त शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। इस की दुर्दशा को देख कर आत्मसुधार की शिक्षा ग्रहण करने वाले तो लाखों में दो चार ही मिलेंगे, किन्तु उसे देख कर दूसरी ओर मुंह फिराने वाले संसार में अनेक होंगे। परन्तु जीवन की महानता के वे ही भाजन बनते हैं जो उपयुक्त शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अपना आत्मश्रेय साधने में सदा तत्पर रहते हैं। -सिंघाडग जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद-तिय,चउक्क, चच्चर, महापह-इन पदों का परिचायक है। सिंघाडग-शृंगाटक आदि पदों का अर्थ प्रथम अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। -वेज्जो वा ६-यहां पर दिए गए 6 के अंक से प्रथम अध्ययन में पढ़े गए-वेजपुत्तो वा, जाणओ वा, जाणयपुत्तो वा, तेइच्छिओ वा, तेइच्छियपुत्तो वा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ वहीं पर लिख दिया गया है। -कोडुंबियपुरिसा जाव उग्घोसंति-यहां पढ़ा गया-जाव-यावत्-पद-तह त्ति विणएणं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सोरियपुरे णगरे सिंघाडग-तिय-चउक्कचच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं "-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए गलए लग्गे, तं जो णं इच्छति वेज्जो वा 6 सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, तस्स णं सोरिए विउलं अत्थसंपयाणं दलयति-"त्ति-इन पदों का परिचायक है। अर्थात् कौटुम्बिकपुरुष-नौकर शौरिकदत्त मच्छीमार की बात को विनयपूर्वक तथेति (ऐसा ही होगा) ऐसा कह कर स्वीकार करते हैं, और शौरिकपुर के शृङ्गाटक त्रिक् 662] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध