________________ दुःख की प्राप्ति। परन्तु विचार किया जाए तो उसका वह सुख भी दुःखमिश्रित होने से दुःखरूप ही है। वहां सुख का तो केवल आभासमात्र है। तात्पर्य यह है कि कर्मसम्बन्ध से जब तक जन्म और मृत्यु का सम्बन्ध इस जीवात्मा के साथ बना हुआ है, तब तक इस को शाश्वत सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। उस की प्राप्ति का सर्वप्रथम साधन सम्यक्त्व की प्राप्ति है, सम्यक्त्व के बाद ही चारित्र का स्थान है। दर्शन तथा चारित्र की सम्यग् आराधना से यह आत्मा अपने कर्मबन्धनों को तोड़ने में समर्थ हो सकता है। कर्मबन्धनों को तोड़ने से आत्मशक्तियां विकसित होती हैं, उन का पूर्णविकास-आत्मा की कैवल्यावस्था अर्थात् केवलज्ञान प्राप्ति की अवस्था है, उस अवस्था को प्राप्त करने वाला जीवन्मुक्त आत्मा जैन परिभाषा के अनुसार सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता हुआ सदेह या साकार ईश्वर के नाम से अभिहित किया जा सकता है। इसके पश्चात् अर्थात् औदारिक अथच कार्मण शरीर के परित्याग के अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त हुआ आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर और अमर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। तब शौरिकदत्त का जीव इस जन्म तथा मरण की परम्परा से छूट कर कभी इस अवस्था को भी जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है, प्राप्त करेगा कि नहीं, यह गौतम स्वामी के प्रश्न का अभिप्राय है। इसके उत्तर में भगवान महावीर स्वामी ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन मूलार्थ में स्फुटरूप से कर दिया गया है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। अस्तु, शौरिकदत्त का जीव अन्त में समस्त कर्मबन्धनों को तोड़कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य से युक्त होता हुआ परम कल्याण और परम सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करेगा। __-रयणप्पभाए. संसारो तहेव जाव पुढवीए०- इन पदों से तथा इनके साथ दी गई बिन्दुओं से अभिमत पाठ पंचम अध्याय में, तथा-बोहिं, सोहम्मे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति . ५-इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठकों को स्मरण होगा कि दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन को सुन लेने के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से उसके अष्टम अध्ययन को सुनाने की अभ्यर्थना की थी, जिस की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत अष्टमाध्याय सुनाना आरम्भ किया था। अध्ययन की समाप्ति पर आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी को जो 1. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं। सम्मत्तचरित्ताई जुगवं, पुव्वं वसम्मत्तं॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 28/29) / ___ अर्थात् सम्यक्त्व-समकित के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी-चारित्र की भजना है अर्थात् जहां पर सम्यक्त्व होता है वहां पर चारित्र हो भी सकता है और नहीं भी, तथा यदि दोनों-दर्शन और चारित्र एक काल में हों तो उन में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [667