________________ -सुकुमालपाणिपायं जाव सुरूवं-यहां पठित जाव-यावत् पद द्वितीय अध्याय के टिप्पण में पढ़े गए-अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं-से ले कर-पियदंसणं-यहां तक के पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में ये पद द्वितीयान्त अपेक्षित हैं। अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। ___-असणं 4 जाव मित्त नामधेजं-यहां पठित इन पदों से-पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, मित्त-जाइ-णियग-सयण-संबन्धि-परिजणं आमंतेंति, तओ पच्छा ण्हाया कयबलिकम्मा-से ले कर-मित्तणाइणियगसयणसम्बन्धिपरिजणस्स पुरओयहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। अशन पान आदि शब्दों का अर्थ प्रथम अध्याय की टिप्पणी में , तथा-मित्र इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय की टिप्पणी में लिखा जा चुका है। तथा-तओ पच्छा-इत्यादि पदों का अर्थ तृतीय अध्याय की टिप्पणी में लिखा जा चुका है। मात्र अन्तर इतना है कि वहां विजय चोरसेनापति का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में सेठ दत्त और सेठानी कृष्णश्री का। तथा वहां-हाया-इत्यादि पद एकवचनान्त हैं, जब कि यहां ये पद बहुवचनान्त अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में बहुवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। पंचधातीपरिग्गहिया जाव परिवड्ढति-यहां पठित जाव-यावत् से द्वितीय अध्याय में पढ़े गए-खीरधातीए 1, मज्जण-से लेकर-चंपयपायवे सुहंसुहेणं-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ भी वहीं लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता का। लिंगगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। ___-उम्मुक्कबालभावा जाव जोव्वणेण-यहां पठित जाव-यावत् पद से -जोव्वणगमणुप्पत्ता विण्णायपरिणयमेत्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। युवावस्था प्राप्त को यौवनकानुप्राप्ता कहते हैं और विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त विज्ञातपरिणतमात्रा कही जाती है। . -खुजाहिं जाव परिक्खित्ता-यहां पठित जाव-यावत् पद से चिलाइयाहिं वामणीवडभीबब्बरी-से लेकर-चेडियाचक्कवाल-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां उज्झितक कुमार का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में देवदत्ता कुमारी का। ... -हाते जाव विभूसिते-यहां के-जाव-यावत्-पद से विवक्षित पाठ का वर्णन पंचम अध्याय में लिखा जा चुका है तथा राया जाव वीतीवयमाणे-यहां पठित जाव-यावत् पद से -बहुहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे दत्तस्स गाहावइस्स प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [713