________________ स्वीकार करके। सुपइट्ठियस्स-सुप्रतिष्ठित नगर के। बहिया-बाहिर। पच्चत्थिमे-पश्चिम। दिसीभागेदिग्भाग में। एगं-एक / महं-महती-बड़ी विशाल। कूडागारसालं-कूटाकार शाला। करेंति-तैयार कराते हैं, जो कि। अणेगखंभसयसंनिविट्ठ-सैंकड़ों खम्भों वाली और। पासाइयं ४-प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी, तैयार करा कर। जेणेव-जहां पर। सीहसेणे-सिंहसेन। राया-राजा था। तेणेव-वहां पर / उवागच्छंति उवागच्छित्ता-आते हैं, आकर। तामाणत्तियं-उस आज्ञा का। पच्चप्पिणंतिप्रत्यर्पण करते हैं अर्थात् आप की आज्ञानुसार कूटाकारशाला तैयार करा दी गई है, ऐसा निवेदन करते हैं। मूलार्थ-तदनन्तर वह सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त को जान कर कोपभवन में जाकर श्यामादेवी से इस प्रकार बोला-हे महाभागे ! तुम इस प्रकार क्यों निराश और चिन्तित हो रही हो? महाराज सिंहसेन के इस कथन को सुन श्यामा देवी क्रोधयुक्त हो प्रबल वचनों से राजा के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पांच सौ सपलियों की एक कम पांच सौ माताएं इस वृत्तान्त को जान कर आपस में एक दूसरी को इस प्रकार कहने लगीं कि महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी कन्याओं का आदर, सत्कार नहीं करते, उन का ध्यान भी नहीं रखते, प्रत्युत उन का आदर न करते हुए और ध्यान न रखते हुए समय बिता रहे हैं। इसलिए अब हमारे लिए यही समुचित है कि अग्नि, विष तथा किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अंत कर डालें। इस प्रकार उन्होंने निश्चय कर लिया है और तदनुसार वे.मेरे अंतर, छिद्र और विरह की प्रतीक्षा करती हुईं अवसर देख रही हैं। इसलिए न मालूम मुझे वे किस कुमौत से मारें, इस कारण भयभीत हुई मैं यहां पर आकर आर्तध्यान कर रही हूँ। यह सुन कर महाराज सिंहसेन ने श्यामादेवी के प्रति जो कुछ कहा वह निम्नोक्त है प्रिये ! तुम इस प्रकार हतोत्साह हो कर आर्त्तध्यान मत करो, मैं ऐसा उपाय करूंगा जिस से तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की बाधा तथा प्रबाधा नहीं होने पाएगी। इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट आदि वचनों द्वारा सान्त्वना देकर महाराज सिंहसेन वहां से चले गए, जाकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उन से कहने लगे कि तुम लोग यहां से जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर एक बड़ी भारी कूटाकारशाला बनवाओ जो कि सैंकड़ों स्तम्भों से युक्त और प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप हो अर्थात् देखने में नितान्त सुन्दर हो। वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ सिर पर दस नखों वाली अंजलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं,जा कर सुप्रतिष्ठित नगर की पश्चिम दिशा में एक महती और अनेकस्तम्भों वाली तथा प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप अर्थात् अत्यन्त मनोहर 698 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध