________________ निष्कासन आदि कार्य पूर्ववत् किया। राया जाते-फिर वह राजा बन गया। महया-जो कि महाहिमवान्हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सुप्रतिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था। वहां पर महाराज महासेन राज्य किया करते थे। उस के अन्तःपुर में धारिणी प्रमुख एक हजार देवियां-रानियां थीं। महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी देवी का आत्मज सिंहसेन नामक राजकुमार था जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला तथा युवराज पद से अलंकृत था। सिंहसेन राजकुमार के माता-पिता ने किसी समय अत्यन्त विशाल पाँच सौ प्रासादावतंसक-उत्तम महल बनवाए। तत्पश्चात् किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन राजकुमार का श्यामाप्रमुख पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और पाँच सौ प्रीतिदान-दहेज दिए। तदनन्तर राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा। तत्पश्चात् किसी अन्य समय महाराज महासेन की मृत्यु हो गई। रुदन-आक्रंदन और विलाप करते हुए राजकुमार ने उसका निस्सरणादि कार्य किया। तत्पश्चात् राजसिंहासन पर आरूढ होकर वह हिमवान् आदि पर्वतों के समान महान् बन गया, अर्थात् राजपद से विभूषित हो हिमवन्त आदि पर्वतों के तुल्य शोभा को प्राप्त होने लगा। _____टीका-शूली पर लटकाई जाने वाली एक महिला की करुणामयी अवस्था का वर्णन कर उस के पूर्वभव का जीवनवृत्तान्त सुनने के लिए नितान्त उत्सुक हुए गौतम गणधर को देख, परम कृपालु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बोले कि हे गौतम ! यह संसार कर्म क्षेत्र है, इस में मानव प्राणी नानाप्रकार के साधनों से कर्मों का संग्रह करता रहता है। उस में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होते हैं। यह मानव प्राणी इस कर्मभूमि में 'जिस प्रकार का बीज वपन करता है, उसी प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है। तुम ने जो दृश्य देखा है वह भी दृष्ट व्यक्ति के पूर्वसंचित कर्मों के ही फल का एक प्रतीक है। जब तुम इस महिला के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनोगे, तो तुम्हें अपने आप ही कर्मफल की विचित्रता का बोध हो जाएगा। 1. जंजारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छइ सम्पराए। एगन्तदुक्खं भवमजिणित्ता, वेयन्ति दुक्खी तमणन्तदुक्खं // 23 // (सूय०-अ. 5. उ० 2) अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, संसार में वही उस को प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त दुःखरूप नरकभव का कर्म किया है, वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को प्राप्त करता है। 678 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध