________________ ब्रह्मचारी अपने व्रत का निर्विघ्नता से पालन कर सकता है, वे दश 'कारण निम्नोक्त हैं १-जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुंसक का निवास हो, उस स्थान में ब्रह्मचर्य के पालक व्यक्ति को नहीं रहना चाहिए। २-ब्रह्मचारी स्त्री-सम्बन्धी कथा न करे अर्थात् स्त्रियों के रूप, लावण्य का वर्णन तथा अन्य कामवर्धक चेष्टाओं का निरूपण न करे। ३-ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे और जिस स्थान पर स्त्रियां बैठ चुकी हैं, उस स्थान पर मुहूर्त (दो घड़ी) पर्यन्त न बैठे। ४-ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर-मन को हरने वाली और मनोरम-मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाली इन्द्रियों की ओर ध्यान न देवे। ५-ब्रह्मचारी पत्थर की या अन्य ईंट आदि की दीवारों के भीतर से तथा वस्त्र के परदे के भीतर से आने वाले स्त्रियों के कूजित शब्द (सुरत समय में किया गया अव्यक्त शब्द), रुदित शब्द (प्रेममिश्रित रोष से रतिकलहादि में किया गया शब्द), गीत शब्द (प्रमोद में आकर स्वरतालपूर्वक किया गया शब्द), हास्य शब्द और स्तनित शब्द (रतिसुख के आधिक्य से होने वाला शब्द) एवं क्रन्दित शब्द (भर्ता के रोष तथा प्रकृति के ठीक न होने से किया. गया शोकपूर्ण शब्द) भी न सुने। ६-ब्रह्मचारी पूर्वरति (स्त्री के साथ किया गया पूर्व संभोग) तथा अन्य पूर्व की गई काम-क्रीड़ाओं का स्मरण न करे। ७-ब्रह्मचारी पौष्टिक-पुष्टिकारक एवं धातुवर्धक आहार का ग्रहण न करे। ८-ब्रह्मचारी प्रमाण से अधिक आहार तथा जल का सेवन न करे। ९-ब्रह्मचारी अपने शरीर को विभूषित न करे, प्रत्युत अधिकाधिक सादगी से जीवन व्यतीत करे। १०-ब्रह्मचारी कामोत्पादक शब्द, स्त्री आदि के रूप, मधुर तथा अम्लादि रस और सुरभि-सुगन्ध और सुकोमल स्पर्श अर्थात् पांचों इन्द्रियों के पांचों विषयों में आसक्त न होने पाए। इन दश नियमों के सम्यग् अनुष्ठान से ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा-पूरा संरक्षण हो सकता 1. इन कारणों का अर्थ सम्बन्धी अधिक ऊहापोह करने के लिए देखो, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य परमपूज्य परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री आत्मा राम जी महाराज द्वारा निर्मित श्री उत्तराध्ययन सूत्र . की आत्मज्ञानप्रकाशिका नामक हिन्दीभाषाटीका। 670 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध