________________ सोरिए-शौरिक / मच्छंधे-मत्स्यबन्ध / वेजपडियारनिविण्णे-वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निराश हुआ। तेणं-उस। महया-महान्। दुक्खेणं-दुःख से। अभिभूते-अभिभूत-युक्त हुआ। सुक्खे-शुष्क हो कर। जाव-यावत्। विहरति-विहरण करता है अर्थात् दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा है। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोतमा !-हे गौतम ! सोरिए-शौरिक। पुरा-पूर्वकृत। पोराणाणं-पुरातन। जावयावत् अर्थात् पाप कर्मों का फल भोगता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है-समय व्यतीत कर रहा है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय पर शूला द्वारा पकाए गए, तले गए और भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते हुए उस शौरिक मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा लग गया, जिस के कारण वह महती वेदना का अनुभव करने लगा। तब नितान्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने अनुचरों को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे भद्रपुरुषो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों यावत् सामान्य मार्गों पर जा कर ऊंचे शब्द से इस प्रकार उद्घोषणा करो कि हे महानुभावो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा लग गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस मत्स्यकंटक को निकाल देगा, तो शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा। तब कौटुम्बिकपुरुषों-अनुचरों ने उस की आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी। उस उद्घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य और वैद्यपुत्र आदि शौरिकदत्त के घर आये, आकर वमन, छर्दन, अवपीड़न, कवलग्राह, शल्योद्धरण और विशल्यकरण आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटे को निकालने तथा पूय आदि को बन्द करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो सके अर्थात् उन से शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और ना ही पीव एवं रुधिर ही बन्द हो सका, तब वह श्रान्त, तान्त और परितान्त हो अर्थात् निराश एवं उदास हो कर वापिस अपने-अपने स्थान को चले गए।तब वह वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निर्विण्णनिराश (खिन्न) हुआ 2 शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूख कर यावत् अस्थिपंजर मात्र शेष रह गया, तथा दुःखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार वह शौरिकदत्त पूर्वकृत यावत् अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। ___टीका-कर्मग्रन्थों में कर्म की प्रकृति और स्थिति आदि का सविस्तार वर्णन बड़े ही मौलिक शब्दों में पाया जाता है। कोई कर्म ऐसा होता है, जो काफी समय के बाद फलोन्मुख होता है अर्थात् उदय में आता है, तथा कोई शीघ्र ही फलप्रद होता है। यह सब कुछ बन्धसमय की स्थिति पर निर्भर करता है। कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध आदि के 660] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध