________________ कबूतर बनना पसन्द करते हैं या कौवा ?, इस का उत्तर सहृदय पाठकों पर छोड़ता हूं। ऊपर के विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि मांसभक्षण किसी भी प्रकार से आदरणीय एवं आचरणीय नहीं है, प्रत्युत वह हेय है एवं त्याज्य है। अतः मांस खाने वाले मनुष्यों से हमारा सानुरोध निवेदन है कि इस पर भली भांति विचार करें और मनुष्यता के नाते, दया और न्याय के नाते, शरीरस्वास्थ्य और धर्मरक्षा के नाते तथा नरकगति के भीषणातिभीषण असह्य संकटों से अपने को सुरिक्षत रखने के नाते इन्द्रियदमन करते हुए मांसाहार को सर्वथा छोड़ डालें और सब जीवों को -दानों में सर्वश्रेष्ठ अभयदान-दे कर स्वयं अभयपदनिर्वाणपद उपलब्ध करने का स्तुत्य एवं सुखमूलक प्रयास करें। जिस प्रकार मांस दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक होने से त्याज्य है, ठीक उसी प्रकार मदिरा का सेवन भी मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध होने से हेय है, अनादरणीय है। मदिरा पीने वाले मनुष्यों की जो दुर्दशा होती है उसे आबालवृद्ध सभी जानते ही हैं, अतः उस के स्पष्टीकरण करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती। मदिरा को उर्दू भाषा में शराब कहते हैं। शराब शब्द दो पदों से बना है। प्रथम शर और दूसरा आब।शर शरारत, शैतानी तथा धूर्तता का नाम है। आब पानी को कहते हैं। अर्थात् जो पानी पीने वाले को इन्सान न रहने दे, उसे शैतान बना दे, धूर्तता के गढ़े में गिरा डाले, मां और बहिन की अन्तरमूलक बुद्धि का उच्छेद कर डाले, हानि और लाभ के विवेक से शून्य कर दे तथा हृदय में पाशविकता का संचार कर दे, उसे शराब कहते हैं। शराब शब्द की इस अर्थविचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के निर्माण एवं कल्याण के अभिलाषी मानव को शराब से दूर एवं विरत रहना चाहिए इस के अतिरिक्त मदिरा के निषेधक अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन भी उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के १९वें अध्ययन में लिखा है कि राजकुमार मृगापुत्र अपने माता पिता को मदिरापान का परलोक में जो कटु फल भोगना पड़ता है, उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि पूज्य माता पिता जी ! स्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ, तब मुझे यमपुरुषों ने कहा कि अय दुष्ट ! तुझे मनुष्यलोक में मदिराशराब से बहुत प्रेम था जिस से तू नाना प्रकार की मदिराओं का बड़े चाव के साथ सेवन किया करता था। ले फिर, अब हम भी तुझे तेरी प्यारी मदिरा का पान कराते हैं। ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मुझ को अग्नि के समान जलती हुई वसा-चर्बी और रुधिर-खून का जबर्दस्ती पान 1. मांसनिषेधमूलक अन्य शास्त्रीय प्रवचन पीछे पंचम अध्ययन में दिया जा चुका है। तथा मांस मनुष्य की प्रकृति के नितान्त विरुद्ध है, इस सम्बन्ध में सप्तम अध्ययन में विचार किया जा चुका है। 638 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कंध