________________ और संयम के पथ का पथिक बनाता है वही यथार्थ धर्म है। इस के विपरीत जो धर्म इन बातों का उपदेश या इन की प्रेरणा नहीं करता वह धर्म ही नहीं है। अहिंसा धर्म में त्यागादि की पूर्वोक्त ये सभी बातें पाई जाती हैं। अत: मांसभक्षण करने वाले अहिंसाधर्म का हनन करते हैं। इस में कोई शंका नहीं की जा सकती है। धर्म का हनन ही पाप है। पाप मानव को चतुर्गतिरूप संसार में रुलाता है और जन्म तथा मरण से जन्य अधिकाधिक दुःखों के प्रवाह से प्रवाहित करता रहता है। अतः पापों से बचने के लिए भी मांसाहार नहीं करना चाहिए। . जिन मांसाहारी लोगों का यह कहना है कि हम पशुओं को न तो मारते हैं और न उन के मारने के लिए किसी को कहते हैं, फिर हम पापी कैसे? इस का उत्तर यह है कि क़साईखाने मांस खाने वालों के लिए ही बने हैं। यदि मांसाहारी लोग मांस न खायें तो कोई प्राणिवध क्यों करे ? जहां कोई ग्राहक न हो तो वहां कोई दुकान नहीं खोला करता। दूसरी बात यह है कि केवल अपने हाथों किसी को मारने का नाम ही हिंसा नहीं है। प्रत्युत हिंसा मन, वचन और * . काया के द्वारा करना, कराना और अनुमोदन करना इस भांति नौ प्रकार की होती है। मांसाहारी का मन, वचन और शरीर मांसाहारी है फिर भला वह हिंसाजनक पाप से कैसे बच सकता है? इस के अतिरिक्त शास्त्रों में -१-मांस के लिए सलाह-आज्ञा देने वाला। २-जीवों के / अंग काटने वाला।३-जीवों को मारने वाला।४-मांस खरीदने वाला।५-मांस बेचने वाला।६-मांस पकाने वाला।७-मांस परोसने वाला और ८-मांस खाने वाला। इस भांति आठ प्रकार के क़साई बतलाए गए हैं। इन में मांस खाने वाले को स्पष्टरूप से घातक माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि एक बार भीष्मपितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर !"-वह मुझे खाता है, इस लिए मैं भी उस को खाऊंगा-" यह मांस शब्द का मांसत्व है-ऐसा समझो / तात्पर्य यह है कि मांस पद को मां और स इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। मां का अर्थ होता है-मुझको और स वह-इस अर्थ का परिचायक है। अर्थात् मांस शब्द "जिस को मैं खाता हूं, एक दिन वह मुझे भी खायेगा" इस अर्थ का बोध कराता है। अतः अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कभी भी मांस का सेवन नहीं करना चाहिए। 1. अनुमन्ता विशसिता, निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च, खादकश्चेति घातकाः॥ (मनुस्मृति 5/51) 2. मां स भक्षयते यस्माद् , भक्षयिष्ये तमप्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्धस्व भारत!॥ (महाभारत 116/35) 636 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध