________________ अर्थात् तुला में एक ओर चारों वेद रख लिए जाएं, तथा एक ओर ब्रह्मचर्य रखा जाए, तो दोनों एक समान होते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य का माहात्म्य चारों वेदों के समान है। इसी भांति एक ओर समस्त पाप और एक ओर मदिरा का सेवन रखा जाए तो ये भी दोनों समान ही हैं। तात्पर्य यह है कि मदिरा के सेवन करने का अर्थ है-सब प्रकार के पापों का कर डालना। ख्यातं भारतमण्डले यदुकुलं, श्रेष्ठं विशालं परम्। ___साक्षाद् देवविनिर्मिता वसुमतीभूषा पुरी द्वारिका॥ एतद् युग्मविनाशनं च युगपज्जातं क्षणात्सर्वथा। तन्मूलं मदिरा नु दोषजननी, सर्वस्वसंहारिणी॥१॥ (अज्ञात) अर्थात् यदुकुल भारतवर्ष में प्रसिद्ध, श्रेष्ठ, विशाल और उत्कृष्ट था, तथा द्वारिका नगरी साक्षात् देवों की बनाई हुई और पृथ्वी की भूषा-शोभा अथवा भूषणस्वरूप थी, परन्तु इन दोनों का विनाश एक साथ सर्वथा क्षणभर में हो गया। इस का मूलकारण दोषों को जन्म देने वाली और सर्वस्व का संहार करने वाली मदिरा-शराब ही थी। जित पीवे मति दूर होय बरल पवै नित्त आय। अपना पराया न पछाणई खस्महु धक्के खाय॥ जित पीते खस्म बिसरै दरगाह मिले सजाय। झूठा मद मूल न पीवई जेका पार बसाय॥ , (सिक्खशास्त्र) अर्थात् जिस के पीने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदयस्थल में खलबली मच जाती है। इस के अतिरिक्त अपने और पराए का ज्ञान नहीं रहता और परमात्मा की ओर से उसे धक्के मिलते हैं। जिस के पीने से प्रभु का स्मरण नहीं रहता और परलोक में दण्ड मिलता है ऐसे झूठे-निस्सार नशों का जहां तक बस चले कभी भी सेवन नहीं करना चाहिए। औगुन कहीं शराब का ज्ञानवन्त सुनि लेय। मानस से पसुआ करे, द्रव्य गांठि का देय।१। अमल अहारी आत्मा, कब हुन पावे पार। कहे कबीर पुकार के, त्यागो ताहि विचार।२। उर्दू कविता में शराब को "दुखतरे रज' (अंगूर की पुत्री) के नाम से अभिहित किया जाता है। इसी बात को लक्ष्य में रख कर सुप्रसिद्ध उर्दू के कवि अकबर ने व्यंग्योक्ति द्वारा शराब की कितने सुन्दर शब्दों में निन्दा की हैउस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर। खैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ॥ 642 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध