________________ ___ कृमिकीटपतंगाना, विभुजां चैव पक्षिणाम्। . हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो ब्राह्मणो व्रजेत्॥ (मनुस्मृति अध्याय 12, श्लोक 56) अर्थात् मदिरा के पीने वाला ब्राह्मण, कृमि, कीट-बड़े कीड़े, पतङ्ग, सूयर, और अन्य हिंसा करने वाले जीवों की योनियों को प्राप्त करता है। ब्रह्महा च सुरापश्च, स्तेयी च गुरुतल्पगः। - एते सर्वे पृथक् ज्ञेयाः, महापातकिनो नराः॥ (मनुस्मृति अध्याय 9/235) अर्थात् ब्राह्मण को मारने वाला, मदिरा को पीने वाला, चौर्यकर्म करने वाला और गुरु की स्त्री के साथ गमन करने वाला ये सब महापातकी-महापापी समझने चाहिएं। अर्थात् ब्रह्महत्या तथा मदिरापान आदि ये सब महापाप कहलाते हैं। सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत्।। तया स काये निर्दग्धे, मुच्यते किल्विषात्ततः। (मनुस्मृति अध्याय 11/90) अर्थात् मोह-अज्ञान से मदिरा को पीने वाला द्विज तब मदिरापान के पाप से छुटता है जब गरम-गरम जलती हुई मदिरा को पीने से उस का शरीर दग्ध हो जाता है। यस्य कायगतं ब्रह्म, मद्येनाप्लाव्यते सकृत्। तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं, शूद्रत्वं च स गच्छति॥ (मनुस्मृति अध्याय 11/97) ' अर्थात् जिस ब्राह्मण का शरीरगत जीवात्मा एक बार भी मदिरा से मिल जाता है, . तात्पर्य यह है कि एक बार भी जो ब्राह्मण मदिरा का सेवन करता है, उस का ब्राह्मणपना दूर हो जाता है और वह शूद्रभाव को उपलब्ध कर लेता है। चित्ते भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात्, भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपैति। पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयं // 1 // (हितोपदेश) अर्थात् मदिरा के पान करने से चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती है, चित्त के भ्रान्त होने पर मनुष्य पापाचरण की ओर झुकता है, और पापों के आचरण से अज्ञानी जीव दुर्गति को प्राप्त करते हैं। इसलिए मदिरा-शराब को नहीं पीना चाहिए, नहीं पीना चाहिए। एकतश्चतुरो वेदाः, ब्रह्मचर्यं तथैकतः। एकतः सर्वपापानि, मद्यपानं तथैकतः॥ (अज्ञात) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [641