________________ कराया। वह भी एक बार नहीं किन्तु अनेकों बार। यमपुरुषों के उस दु:खद एवं बर्बर दण्ड का जब मैं स्मरण करता हूं तो मेरा मानस कांप उठता है और इसीलिए मैंने यह निश्चय किया है कि कभी भी मदिरा का सेवन नहीं करूंगा तथा ऐसे अन्य सभी आपातरमणीय सांसारिक विषयों को छोड़ कर सर्वथा सुखरूप संयम का आराधन करूंगा। दशवैकालिक सूत्र के पंचम अध्ययन के द्वितीयोद्देश में मदिरापान का खण्डनमूलक बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। वहां लिखा है कि आत्मसंयमी साधु संयमरूप विमलयश की रक्षा करता हुआ जिस के त्याग में सर्वज्ञ भगवान् साक्षी हैं, ऐसे रेसुरा, मेरक आदि सब प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन (पान) न करे। सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मजगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो॥३८॥ गुरु कहते हैं कि हे शिष्यो ! जो साधु धर्म से विमुख हो कर एकान्त स्थान में छिप कर मद्यपान करता है और समझता है कि मुझे यहां छिपे हुए को कोई नहीं देखता है, वह भगवान की आज्ञा का लोपक होने से पक्का चोर है। उस मायाचारी के प्रत्यक्ष दोषों को तुम स्वयं देखो और अदृष्ट-मायारूप दोषों को मेरे से श्रवण करो। पियए एगओ तेणो, न मे कोई वियाणइ। तस्स पस्सह दोनाई, नियडिं च सुणेह मे॥३९॥ / मदिरासेवी साधु के लोलुपता, छल, कपट, झूठ, अपयश और अतृप्ति आदि दोष बढ़ते जाते हैं, अर्थात् उस की निरन्तर असाधुता ही असाधुता बढ़ती रहती है, उस में साधुता का तो नाम भी नहीं रहता। वड्ढइ सुंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो। . अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ॥४०॥ मंदिरासेवी दुर्बुद्धि साधु अपने किए हुए दुष्टकर्मों के कारण चोर के समान सदा उद्विग्न-अशान्तचित्त रहता है, वह अन्तिम समय पर भी संवर-चारित्र की आराधना नहीं कर सकता। निच्चुव्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं॥४१॥ .. 1. तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य। पजिओमि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० 1971) 2. सुरा, मेरक-आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [639