________________ तैयार करके महाराज मित्र के भोजन मंडप में ले जा कर महाराज मित्र को प्रस्तुत किया . करता, तथा स्वयं भी वह श्रीद महानसिक उन पूर्वोक्त श्लक्ष्णमत्स्य आदि समस्त जीवों के मांसों, रसों, हरितशाकों जोकि शूलपक्क हैं, तले हुए हैं, भूने हुए हैं, के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विद्या-विज्ञान रखने वाला तथा इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 33 सौ वर्ष की परमायु को पाल कर कालमास में काल करके छठी पृथिवी-नरक में उत्पन्न हुआ। टीका-सामान्य पुरुष और महापुरुष में यही भेद हुआ करता है कि साधारण पुरुष यदि किसी घटना-विशेष को देखता है तो उस से कुछ भी शिक्षा ग्रहण करने का यत्न नहीं करता प्रत्युत दूसरी ओर मुंह फेर लेता है और अपने उद्दिष्ट स्थान की ओर प्रस्थान कर जाता है। परन्तु इस प्रकार की उपेक्षागर्भित मनोवृत्ति महापुरुषों की नहीं होती। किसी विशेष घटना को देख कर महापुरुष उस के विषय में उचित ऊहापोह करते हैं और उस के मूल कारण को ढूंढने का यत्न करते हैं। कारण उपलब्ध होने पर उस के फल की ओर ध्यान देते हुए अपनी आत्मा को शिक्षित करने का उद्योग करते हैं। अनगार गौतम स्वामी भी उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं, जो कि शौरिकपुर नामक नगर के राजमार्ग में देखी हुई घठनाविशेष के मूल कारण को : ढूंढ़ना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने वीर प्रभु से पूछने का प्रयास किया था। गौतम स्वामी के पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारंभ करते हुए कहा कि गौतम ! बहुत पुरानी बात है। इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष के अन्दर नन्दिपुर नाम का एक नगर था, जोकि परमसुन्दर एवं रमणीय था। नगर के शासक महाराज मित्र के नाम से विख्यात थे। वे पूरे प्रजाहितैषी और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। महाराज मित्र के यहां श्रीद नाम का रसोइया था, जो कि महा अधर्मी यावत् जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था। उस रसोइए ने रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले ऐसे अनेक नौकर रखे हुए थे, जो मच्छियों को मारते तथा अन्य पशुओं को जाल में फंसा कर पकड़ते एवं पशुपक्षियों का वध कर उसे लाकर देते। श्रीद रसोइया इन सब को उन के परिश्रम के अनुसार वेतन देता और उन को अधिक परिश्रम से काम करने की प्रेरणा करता। 1. आजकल जितना देश भारतवर्ष के नाम से ग्रहण किया जाता है, वह जैनपरम्परागत भारतवर्ष से बहुत न्यून है। जैन परिभाषा के अनुसार उस में 32 हज़ार देश हैं और वह बड़ा विशाल एवं विस्तृत है। 632] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध