________________ करता हुआ। विहरति-समय व्यतीत कर रहा था। तते णं-तदनन्तर / से-वह / सिरिए-श्रीद। महाणसिएमहानसिक। एयकम्मे ४-एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विद्य और एतत्समाचार। सुबहुं-अत्यधिक।पावकम्मपापकर्म का। समज्जिणित्ता-उपार्जन कर के। तेत्तीसं वाससयाई-तेतीस सौ वर्ष की। परमाउं-परम आयु। पालइत्ता-पाल कर-भोग कर। कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल करके। छट्ठीएछठी। पुढवीए-पृथिवी-नरक में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। - मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। वहां के राजा का नाम मित्र था। उस का श्रीद नाम का एक महान् अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला, एक महानसिक-रसोइया था, उस के रुपया पैसा और धान्यादि रूप में वेतन ग्रहण करने वाले अनेक मात्स्यिक, वागुरिक और शाकुनिक नौकर पुरुष थे जो कि प्रतिदिन श्लक्ष्णमत्स्यों यावत् पताकातिपताकमत्स्यों तथा अजों यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों आदि प्राणियों को मार कर श्रीद महानसिक को लाकर देते थे। तथा उस के वहां पिंजरों में अनेक तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी बन्द किए हुए रहते थे। श्रीद रसोइए के अन्य अनेक रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष जीते हुए तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षियों को पक्षरहित करके उसे लाकर देते थे। तदनन्तर वह श्रीद नामक महानसिक-रसोइया अनेक जलचर और स्थलचर आदि जीवों के मांसों को लेकर छुरी से उन के सूक्ष्मखण्ड, वृत्तखण्ड, दीर्घखण्ड और ह्रस्वखण्ड, इस प्रकार के अनेकविध खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कई एक को हिम-बर्फ में पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिस से वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप से एवं कई एक को हवा के द्वारा पकाता था, कई एक को कृष्ण वर्ण वाले एवं कई एक को हिंगुल के वर्ण वाले किया करता था।तथा वह उन खंडों को तक्र-संस्कारित आमलकरसभावित, मृद्वीका-दाख, कपित्थ-कैथ और दाडिम-अनार के रसों से तथा मत्स्यरसों से भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता तथा कई एक को शूला से पकाता था। इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयूर-मांसों के रसों को तथा और बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, . 1. एतत्कर्मा, एतत्प्रधान-आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [631