________________ जो नारी किसी भी जीवित संतति को उपलब्ध नहीं कर सकती, फिर वह एक यक्ष की पूजा करने या मनौती मानने मात्र से किसी जीवित संतति को कैसे उपलब्ध कर लेती है ? क्या ऐसी स्थिति में कर्मसिद्धान्त का व्याघात नहीं होने पाता ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है शास्त्रों में लिखा है कि जो कुछ भी प्राप्त होता है वह जीव के अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण ही होता है। कर्महीन प्राणी लाख प्रयत्न कर लेने पर भी अभिलषित वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि कर्म के सहयोगी होने पर वह अनायास ही उसे उपलब्ध कर लेता है। अत: गंगादत्ता सेठानी को जो जीवित पुत्र की संप्राप्ति हुई है, वह उसके किसी प्राक्तन पुण्यकर्म का ही परिणाम है, फिर भले ही वह कर्म उसकी अनेकानेक संतानों के विनष्ट हो जाने के अनन्तर उदय में आया था। सारांश यह है कि गंगादत्ता को जो जीवित पुत्र की उपलब्धि हुई है वह उसके किसी पूर्वसंचित पुण्यविशेष का ही फल समझना चाहिए। उसमें कर्मसिद्धान्त के व्याघात वाली कोई बात नहीं है। अस्तु, अब पाठक यक्ष की मनौती का उस बालक के साथ क्या सम्बन्ध है, इस प्रश्न के उत्तर को सुनें न्यायशास्त्र में समवायी, असमवायी और निमित्त ये तीन कारण माने गए हैं। जिस में समवाय सम्बन्ध (नित्यसंबंध) से कार्य की निष्पत्ति-उत्पत्ति हो उसे समवायी कारण कहते हैं। जैसे पट (वस्त्र) का समवायी कारण तन्तु (धागे) हैं। समवायी कारण को उपादानकारण या मूलकारण भी कहा जाता है। कार्य अथवा कारण (समवायी कारण) के साथ जो एक पदार्थ में समवायसम्बन्ध से रहता है, वह असमवायी कारण कहलाता है। जैसे तन्तुसंयोग पट का असमवायी कारण है। तात्पर्य यह है कि तन्तु में तंतुसंयोग और पट ये दोनों समवायसम्बंध से रहते हैं, इसलिए तंतुसंयोग पट का असमवायी कारण कहा गया है। समवायी और असमवायी इन दोनों कारणों से भिन्न कारण को निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे-जुलाहा, तुरी (जुलाहे का एक प्रकार का औज़ार) आदि पट के निमित्त कारण प्रस्तुत में हमें उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों का आश्रयण इष्ट है। जीव को जो सुख दुःख की उपलब्धि होती है उस का उपादान कारण उसका अपना पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म है, और फल की प्राप्ति में जो भी सहायक सामग्री उपस्थित होती है वह सब 1. करणं त्रिविधं समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात्।यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम्। यथा-तन्तवः पटस्य। पटश्च स्वगतरूपादेः। कार्येण कारणेन वा सहैकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवायिकारणम्। यथा-तन्तुसंयोगः पटस्य। तन्तुरूपं पटरूपस्य। तदुभयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम्। यथातुरीवेमादिकं पटस्य। (तर्कसंग्रह:) 608 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध