________________ अह अट्ठमं अज्झयणं अथ अष्टम अध्याय ज्ञानी और अज्ञानी की विभिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि ज्ञानी वही कहला सकता है जो अहिंसक है, अर्थात् हिंसाजनक कृत्यों से दूर रहता है। अज्ञानी वह है जो अहिंसा से दूर भागता है और अपने जीवन को हिंसक और निर्दयतापूर्ण कार्यों में लगाये रखता है। ज्ञानी और अज्ञानी के विभेद के कारण भी विभिन्न हैं। ज्ञानी तो यह सोचता रहेगा कि जो अपने जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है, वह दूसरों के जीवन का नाश किस तरह से कर सकता है ? क्योंकि विचारशील व्यक्ति जो कुछ अपने लिए चाहता है वह दूसरों के लिए भी सोचता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्यता का यही अनुरोध है कि यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों को भी सुखी बनाने का उद्योग करो, इसी में आत्मा का हित निहित है। इसके विपरीत अज्ञानी यह सोचेगा कि वह स्वयं सुखी किस तरह से हो सकता है ? उसका एक मात्र ध्येय स्वार्थ-पूर्ति होता है, कोई मरता है तो मरे, उसे इसकी परवाह नहीं होती, कोई उजड़ता है तो उजड़े उसकी उसे चिन्ता नहीं होने पाती। उसे तो अपना प्रभुत्व और ऐश्वर्य कायम रखने की ही चिन्ता रहती है। इस के अतिरिक्त ज्ञानी जहां परमार्थ की बातें करेगा वहां अज्ञानी अपने ऐहिक स्वार्थ का राग आलापेगा। फलस्वरूप ज्ञानी आत्मा कर्मबन्ध का विच्छेद करता है जब कि अज्ञानी कर्म का बन्ध करता है। - प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नामक एक ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के जीवन का वर्णन है जो अपने अज्ञान के कारण श्रीदत्त रसोइए के भव में अनेकविध मूक पशुओं के जीवन 1. एवं खु नाणिणो सारं , जन हिंसइ किंचण। . अहिंसासमयं चेव, एयावंतं वियाणिया॥ (सूयगडांगसूत्र, 1-4-10) अर्थात किसी जीव को न मारना यही ज्ञानी परुष के ज्ञान का सार है। अतः एक अहिंसा द्वारा ही समता के विज्ञान को उपलब्ध किया जा सकता है। जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे दूसरे प्राणियों को भी वह अप्रिय है, इन्हीं भावों का नाम समता है। 2. जीवितं यः स्वयं चेच्छेत्, कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् / यद् यदात्मनि चेच्छेत्, तत्परस्यापि चिन्तयेत्। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [619