________________ यदि मिट्टी को भी हाथ डालता है तो वह भी सोना बन जाती है, और अशुभ कर्म के उदय में आने पर सुखी जीव भी दुःखों का केन्द्र बन जाता है। उसको चारों ओर दु:ख के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। वह यदि सुवर्ण को छू ले तो वह भी उसके अशुभ कर्म के प्रभाव से मिट्टी बन जाता है। सारांश यह है कि प्राणिमात्र की जीवनयात्रा कर्मों से नियंत्रित है, उसके अधीन हो कर ही उसे अपनी मानवलीला का सम्वरण या विस्तार करना होता है। शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही संसार में सुख और दुःख का चक्र भ्रमण कर रहा है अर्थात् सुख के बाद दुःख और दुःख के अनन्तर सुख यह चक्र बराबर नियमित रूप से चलता रहता है। बालक उम्बरदत्त अभी पूरा युवक भी नहीं हो पाया था कि फलोन्मुख हुए अशुभ कर्मों ने उसे आ दबाया। प्रथम तो सेठ सागरदत्त का समुद्र में जहाज़ के जलमग्न हो जाने के कारण अकस्मात् ही देहान्त हो गया और उसके बाद पतिविरह से अधिकाधिक दुःखित हुई सेठानी गंगादत्ता ने भी अपने पतिदेव के मार्ग का ही अनुसरण किया। दोनों ही परलोक के पथिक बन. गए। तत्पश्चात् अनाथ हुए उम्बरदत्त की पैतृक जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति पर दूसरों ने अधिकार जमा लिया और राज्य की सहायता से उसको घर से बाहर निकाल दिया गया। कुछ दिन पहले उम्बरदत्त नाम का जो बालक अनेक दास और दासियों से घिरा रहता था आज उसे कोई पूछता तक नहीं। अशुभ कर्मों के प्रभाव की उष्णता अभी इतने मात्र से ही ठंडी नहीं पड़ी थी किन्तु उसमें और भी उत्तेजना आ गई। उम्बरदत्त के नीरोग शरीर पर रोगों का आक्रमण हुआ, वह भी एक दो का नहीं किन्तु सोलह का और वह भी क्रमिक नहीं किन्तु एक बार ही हुआ। रोग भी सामान्य रोग नहीं किन्तु महारोग उत्पन्न हुए। १-श्वास, २-कास और ३-भगंदर से लेकर कुष्ठपर्यन्त 16 प्रकार के महारोगों के एक बार ही आक्रमण से उम्बरदत्त का कांचन जैसा शरीर नितान्त विकृत अथच नष्टप्राय हो गया। उसके हाथ पांव गल सड़ गए। शरीर में से रुधिर और पूय बहने लगा। कोई पास में खड़ा नहीं होने देता, इत्यादि। देखा कर्मों का भयंकर प्रभाव! कहां वह शैशवकाल का वैभवपूर्ण सुखमय जीवन और कहां यह तरुणकालीन दुःखपूर्ण भयावह स्थिति ? कर्मदेव ! तुझे धन्य है। भगवान् महावीर बोले-गौतम ! यह सेठ सागरदत्त और सेठानी गंगादत्ता का प्रियपुत्र उम्बरदत्त है, जिसे तुमने नगर के चारों दिग्द्वारों में प्रवेश करते हुए देखा है, तथा जिसे देख कर करुणा के मारे तुम कांप उठे हो। प्रमादी जीव कर्म करते समय तो कुछ विचार करता नहीं और जब उन के फल देने का समय आता है तो उसे भोगता हुआ रोता और चिल्लाता है, परन्तु इस रोने और चिल्लाने को सुने कौन ? जिस जीव ने अपने पूर्व के भवों में नाना प्रकार के जीव जन्तुओं को तड़पाया हो, दुखी किया हो तथा उन के मांस से अपने शरीर को पुष्ट किया हो, 606 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध