________________ शब्दों में "-कौतुकानि मषीपंडादीनि मंगलानि दध्यक्षतादीनि उल्लपडसाडिय त्ति पटः प्रावरणम् शाटको निवसनम्-" इस प्रकार है / तात्पर्य यह है कपाल-मस्तक में किए जाने वाले तिलक का नाम कौतुक है और मंगल शब्द दधि तथा अक्षत-बिना टूटा हुआ चावल आदि का बोधक है। प्राचीन काल में काम करने से पूर्व तिलक का लगाना और दधि एवं अक्षत आदि का खाना मांगलिक कार्य समझा जाता था। एवं पट शब्द से ऊपर ओढ़ने का वस्त्र और शाटिका से नीचे पहनने की धोती का ग्रहण होता है। "-पुण्फ० मित्त महिलाहिं-" यहां का बिन्दु -वत्थगन्धमल्लालंकारं गहाय बहूहि मित्तणाइणियगसयणसंबन्धिपरिजण-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। इस का भावार्थ निम्नोक्त है पक्ष्म शब्द-अक्षिलोम आंख के बाल तथा सूत्र आदि का अल्पभाग एवं केश का अग्रभाग इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है। पक्ष्म से युक्त पक्ष्मल कहलाता है, तब उक्त पद कासुकोमल पक्ष्मल-रोम वाली सुगन्धित तथा कषायरंग से रंगी शाटिका-धोती के द्वारा यह अर्थ फलित होता है। तात्पर्य यह है कि जिस वस्त्र से देव की प्रतिमा को पोंछा गया था वह कषाय रंग का तथा बड़ा कोमल था, एवं उसमें से सुगन्ध आ रही थी। . -तोणं जाव उवाइणति- यहां पठित जाव-यावत् पद से पीछे पढ़े गए-अहं तुब्भं जायं दायं च भागं च अक्खयणिहिं च अणुवड्ढेस्सामि, त्ति कटु ओवाइयं-इन पदों का संसूचक है। इस प्रकार यक्षदेव की पूजा को समाप्त कर उस की मन्नत मानने के बाद यथासमय गंगादत्ता सेठानी को गर्भस्थिति हुई, इत्यादि वर्णन निम्नोक्त सूत्र में किया जाता है - मूल-तते णं से धन्नंतरी वेजे ततो नरगाओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव पाडलिसंडे णगरे गंगादत्ताए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं तीसे गंगादत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ जाव फले, जाओणं विउलं असणं 4 उवक्खडावेंति 2 त्ता बहूहि मित्त जाव परिवुडाओ तं विपुलं असणं 4 सुरं च 6 पुष्फ जाव गहाय पाडलिसंडं णगरं मज्झं-मझेणं पडिनिक्खमंति 2 जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छन्ति 2 पुक्खरिणिं ओगाहंति 2 बहाया जाव पायच्छित्ताओ तं विउलं असणं 4 बहूणं मित्तनाति सद्धिं आसादेंति 4 दोहलं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [597