________________ हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी ( जीवित रहने वाले ) पुत्र या पुत्री को जन्म दूं तो यावत् याचना करती है अर्थात् मन्नत मनाती है, मन्नत मना कर जिधर से आई थी उधर को चली जाती है। टीका-जिस समय श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता को उस के विचारानुसार कार्य करने की पतिदेव की तरफ से आज्ञा मिल गई और उपयुक्त सामग्री ला देने का उसे वचन दे दिया गया, तब गंगादत्ता को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा हर्षातिरेक से वह प्रफुल्लित हो उठी। उस ने नानाविध पुष्पादि की देवपूजा के योग्य सामग्री एकत्रित कर तथा मित्रादि की महिलाओं को साथ ले पाटलिषंड नगर के बीच में से होकर पुष्करिणी-बावड़ी (जो उद्यानगत यक्षमन्दिर के समीप ही थी) की ओर प्रस्थान किया। पुष्करिणी के पास पहुंच कर उस के किनारे पुष्पादि सामग्री रखकर वह पुष्करिणी में प्रविष्ट हुई और जलस्नान करने लगी, स्नानादि से निवृत्त हो, मांगलिक क्रियाएं कर भीगी हुई साड़ी पहने हुए तथा भीगा वस्त्र ऊपर ओढ़े हुए वह पुष्करिणी से बाहिर निकलती है, निकल कर उस ने रक्खी हुई देवपूजा की सामग्री उठाई, और उम्बरदत्त यक्ष के मंदिर की ओर चल पड़ी। वहां आकर उसने यक्ष को प्रणाम किया। तदनन्तर यक्ष-मन्दिर में प्रवेश कर उस ने यक्षराज का पुष्पादि सामग्री द्वारा विधिवत् पूजन किया। प्रथम वह रोमहस्त-मोर के पंखों के झाड़ से यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन करती है, तदनन्तर जलधारा से उस को स्नान कराती है, स्नान के बाद अत्यन्त कोमल सुगन्धित कषायरंग के वस्त्र से उस के अंगों को पोंछती है, पोंछ कर श्वेतवस्त्र पहनाती है, तदनन्तर उस पर पुष्प और मालाएं चढ़ाती है एवं उस के आगे चूर्ण-नैवेद्य रखती है और फिर धूप धुखाती है। ___इस प्रकार पूजाविधि के समाप्त हो जाने पर यक्षप्रतिमा के आगे घुटने टेक और चरणों में सिर झुकाकर प्रार्थना करती हुई इस प्रकार कहती है कि हे देवानुप्रिय ! आप के अनुग्रह से यदि मैं जीवित बालक अथवा बालिका को जन्म देकर माता बनने का सद्भाग्य प्राप्त करूं, तो मैं आप के मन्दिर में आ कर नानाविध सामग्री से आपकी पूजा किया करूंगी, और आप के नाम से दान दिया करूंगी तथा आप के देवभण्डार को पूर्णरूप से भर दूंगी, इस प्रकार उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानकर वह अपने घर को वापिस आ जाती है। यह सूत्र वर्णित कथावृत्त का सार है। "-कयकोउयमंगला उल्लपडसाडिया-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के 1. यहां पर इतना ध्यान रहे कि श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता ने मांगलिक क्रियाएं बावड़ी के पानी में स्थित होकर नहीं की थीं, किन्तु बाहर आकर बावड़ी की चार दीवारी पर बैठकर की थीं। तदनन्तर वह उस वापी की चार दीवारी से नीचे उतरती है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए। 596 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध